१२८ मेरी प्रात्मकहानी १९०४ को इस प्रदेश के लेफ्टनेंट गवर्नर सर जेम्स लाश ने खोला सब सब हिसाब लगाने पर यह प्रकट हुआ कि सभा को इस मद में ६,०००) का देना है। इस निमिच मैं कई वेर घादू इंद्रनारायणसिंह के यहां गया और मैंने उनसे कहा कि अपनी प्रतिक्षा के अनुसार सभा को सहायता दिलवाइए क्योकि इस पर ६०००) का शूण चढ़ गया है। उन्होने कहा कि मैं अमुक दिन जाऊंगा और सब प्रबंध कर दूंगा। कभी वो वे कहते कि आन महाराज के सिर में दर्द था, इसलिये मैं कुछ न कह सका, कमी क्हते कि महाराज चकिया चले गए हैं, लौटने पर मैं मिलूंगा। कभी कहते कि आज महाराज के पास बहुत से आगमी बैठे थे इसलिये मैं कुछ न कह सका। सारांश यह कि उन्होंने मुझ महीनो दौड़ाया, पर एक पैसा भी सहायता में न मिला। मैं नहीं कह सकता कि इस कार्य में कहाँ तक उन्होंने बहाने करके मुझे टाला, अथवा उनको सफलता ही न मिली। अस्तु, यह श्रण पड़ा रहा। पीछे से बाबू गौरीशंकरप्रसाद के मंत्रित्व में उन्हीं के ब्योग से यह चुका। इस ऋण चुकाने का पूर्ण श्रेय वायू गौरीशंकरप्रसाद को है। (सन् १८९९ से लेकर १९०९ तक मेरे नीचे लिखे निर्वध और पुस्तकें प्रकाशित हुई। पिछले प्रकरणों में भाषासारसंग्रह, हिंदी वैज्ञानिक कोश, दत्त के इतिहास और रामायण का उल्लेख हो चुका है। मनको छोड़कर शेप मंथों का ब्योरा नीचे दिया जाता है। इसी समय हिंदी-कोविदरखमाला के प्रथम भाग का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक का नामकरण पंडित श्रीधर पाठक का किया हुआ
पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१३३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।