में लग जाने पर उसकी आर्थिक सहायता की। इससे बढ़कर उनकी अकृतज्ञता और स्वार्थपरता का क्या प्रमाण हो सकता है। मुझे संतोष है कि प्रत्यक्ष रीति से नहीं, पर परोक्ष रीति से मैं इस विद्यादान के शुभ काम में सहायक हुआ। महाराज वर्दवान से समय-समय पर उद्योग करके मैंने नागरी प्रचारिणी सभा के लिये २,०००) की सहायता प्राप्त की।
(५) इधर सभा का काम बढ़ जाने से उसके लिये अपने निज के भवन की चिंता उसके कार्यकर्त्ताओं को बहुत हुई। बहुत छान-बीन के अनंतर मैदागिन के कंपनीबाग का पूर्वी कोना हम लोगों ने चुना। यहाँ उस समय पानी तथा मैले के नल बनते समय जो मिट्टी निकली थी उसका ढेर लगा हुआ था। बाबू गोविंददास तथा मिस्टर ग्रीव्ज के उद्योग तथा काशी के क्लेक्टर ई॰ एच॰ रढीचे साहब की कृपा से यह जमीन ३,५००) रु॰ में सभा को मिली और नवंबर सन् १९०२ में इसके बयनामे की रजिस्टरी हुई। भवन बनवाने के लिये धन इकट्ठा करने का उद्योग आरंभ हुआ। धन के लिये पहला डेपुटेशन बाबू राधाकृष्णदास, पं॰ माधवराव सप्रे, पं॰ रामराव चिंचोलकर, बाबू माधोप्रसाद तथा पं॰ विश्वनाथ शर्मा का बाहर गया। बाबू राधाकृष्णदास वो अयोध्या होकर काशी लौट आए और शेष लोगों ने अनेक स्थानों की यात्रा करके भवन के लिये अच्छा चंदा इकट्ठा किया। मैंने भी इस काम के लिये कई बेर मिर्जापुर की यात्रा को तथा फल- कता, लाहौर और बंबई तक एक-दो मित्रों के साथ घावा लगाया और चन वटोरा |