पृष्ठ:मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद.djvu/५९

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मेघदूत

की शिन्ना पर गेरू से तेरा चित्र खीचता है। परन्तु ज्यांशी में

अपना सिर तेरे चरणों पर रखना चाहता है न्याहो मंग आरयों में " आसूँ उमड़ आते हैं और मेरी दृष्टि मक जाती है-- मुझे देगा चित्रही नहीं दिखाई देता : मुझे न मालूम था कि कृतान्त इतना ऋर और इतना निर्दयी है । वह तो हम दोनों के चित्र-मिलाप का भी नहीं देख सकता । निठुरना की हद हो गई।

मेघों को पहली जल-बागमनाची गई भूमि का भुगन्ध के महश सुगन्धिवान् तर मनाहारी मुख से दूर रहने के काम में तो याही क्षीण यां ही अस्थिपश्वर-हो रहा हूँ । परन्तु पश्वशायक को मुझ पर फिर भी दया नही पानी । वह मुझ नीश पर भी वास'बरमा कर और भी बीए कर रहा है वह तो मर को मारनं पर उतारू है उनकं इन पराक्रम को धक : खैर,ग्रीष्म-ॠतु तो किसी तरह बीत गई। अब तो वर्षा-ऋतु आई है सूर्य का नाप कम हो गया है। आकाश में सर्वत्र वादन्त उमड़ रहे हैं। अब तक जैसी बांनी, वीत गई। अब ये वर्षा के दिन कैसे करेंगे ?

'मेरी सदा यह कामना रहता है कि स्वप्न में ही नु मुझे मिन्न जाय ! परन्तु मेरी यह इन्छा बहुत कम फलवना होती है । यदि सौभाग्य से कभी तु मुझं स्वप्न में मिल जाती है तो मैं तेरा बाढ़ आलिङ्गन करने के लिए उतावला होकर अपनी दांनी बांहें फैलाता हूँ। मुझे एसा करते देख वनदेवियों को तरस अाता है व मेरी विकलता और दीनता देख कर दया से द्रवित हो जाता है और आग्दां से मोतियों के समान बड़े बड़े आंसू बहाने लगती हैं। उनकं वे आम तरुओं के भक्ल पल्लवी पर घण्टों गिरा करते हैं।