जो उज्जयिनी में महाकाल के और कैलास में शङ्कर-पार्वती के दर्शनो से अपनी आत्मा को पावन करने की इच्छा न रक्खे? कौन ऐसा आत्मशत्रु होगा जो जङ्गल में लगी हुई आग को जल की धारा से शान्त करके चमरी आदि पशुओं का जल जाने से बचाने का पुण्य-सञ्चय करना न चाहे? मार्ग रमणीय, देवताओं और तीर्थों के दर्शन, परोपकार करने के साधन---ये सब ऐसी बातें हैं जिनके लिए मूढ़ से मूढ़ मनुष्य भी थोड़ा बहुत कष्ट खुशी से उठा सकता है। मेघ की आत्मा तो आद्र होती है; सन्तपों को सुखी करना उसका विरुद है---अतएव वह यक्ष का सन्देश प्रसन्नतापूर्वक पहुँचाने को तैयार हो जायगा, इसमें सन्देह ही क्या है। अपनी प्रियतमा को जीवित रखने में सहायता देनेवाले मेघ के लिए यक्ष ने जो ऐसा श्रमहारक और सुखद मार्ग बतलाया है वह उसके हृदय के औदार्य का दर्शक है। कालिदास ने इस विषय में जा कवि-कौशल दिखाया है उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। यदि मेघ का मार्ग सुखकर न होता---और, याद रखिए, उसे बहुत दूर जाना था---तो क्या आश्चर्य जो वह अपने गन्तव्य स्थान तक न पहुँचता। और, इस दशा में, यक्षिणी की क्या गति होती,
इसका अनुमान पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। इसी दुःखद
दुर्घटना को टालने के लिए ही ऐसे अच्छे मार्ग की कल्पना कवि
न की है।
कालिदास के समय आदि के विषय में हमने रघुवंश के हिन्दी-
अनुवाद की भूमिका में बहुत कुछ लिखा है। अतएव उन बातों को
दुहराने की ज़रूरत नहीं। यहाँ पर हमें इतना ही निवेदन करना है