चाणक्य---(उठ कर) कंचुकी! सुगाँगप्रासाद का मार्ग बना।
कंचुकी---इधर महाराज (दोनों घूमते हैं)।
कंचुकी---महाराज! यह सुगाँगप्रासाद की सीढ़ियाँ हैं, चढ़ें।
(दोनों सुगॉगप्रासाद पर चढ़ते हैं और चाणक्य के घर का परदा गिरके छिप जाता है।)
चाणक्य---(चढ कर और चन्द्रगुप्त को देख कर प्रसन्नता से आप ही आप) अहा! वृषल सिंहासन पर बैठा है---
हीन नन्द सो रहित नृप, चन्द्र करत जेहि भोग।
परम होत सन्तोष लखि, आसन राजा जोग॥
(पास जाकर) जय हो वृषल की!
चन्द्रगुप्त---(उठ कर और पैरों पर गिर कर) आर्य! चन्द्रगुप्त दण्डवत् करता है।
चाणक्य---(हाथ पकड कर उठा कर) उठो बेटा! उठो।
जहँ लो हिमालय के सिखर सुरधुनी-कन सीतल रहैं।
जहँलों बिविध मनिखण्ड मंडित समुद्र दक्खिन दिसि बहें॥
तहँ लौं सवै नृप आइ भय सों तोहि सोस झुकावहीं।
तिनके मुकुट-मनि रँगे तुव पद निरखि हम सुख पावहीं॥
चन्द्रगुप्त---आर्य! आपकी कृपा से ऐसा ही हो रहा है। बैंठिए।
(दोनो यथा स्थान बैठते हैं)
चाणक्य---वृषल! कहो मुझे क्यों बुलाया है?
चन्द्रगुप्त---आर्य के दर्शन से कृतार्थ होने को।
चाणक्य---(हॅस कर) भला, बहुत शिष्टाचार हुआ अब बताओ क्यों बुलाया है? क्योंकि राजा लोग किसी को बेकाम नहीं बुलाते।