अथवा गुरूजी के उपदेश पर चलने से तो हम लोग सदा ही स्वतन्त्र है।
जब लौ बिगरै काज नहिं तब लौं न गुरु कछु तेहि कहै।
पै शिष्य जाइ कुराह तौ गुरु सीस अंकुस ह्वै रहै॥
तासौ सदा गुरुवाक्य बस हम नित्य पर आधीन हैं।
निर्लोभ गुरु से सन्त जन ही जगत मे स्वाधीन हैं॥
(प्रकाश) अजी वैहीनर! "सुगॉगप्रासाद" का मार्ग दिखाओ
कंचुकी---इधर आइये महाराज इधर!
राजा---(आगे बढता है)
कंचुकी---महाराज! सुगॉगप्रासाद की यही सीढ़ी है।
राजा---ऊपर चढ़ कर अहा! शरद ऋतु की शोभा से सब दिशाये कैसी सुन्दर हो रही हैं?
सरद विमल ऋतु सोहई, निरमल नील अकाश।
निसानाथ पूरन उदित, सोलह कला प्रकाश॥
चारु चमेली बन रहीं, महमह महँकि, सुबास।
नदी तीर फूले लखौ, सेत सेत बहु कास॥
कमल कुमोदिनि सरन में, फूलेसोभा देत।
भौर वृन्द जापै लखौ, गूँजि गूँजि रस लेत॥
बसन चॉदनी चन्दमुख, उड्डगन सोती माल।
काल फूल मधु हास यह, सरद किधौ नव बाल॥
(चारों ओर देखकर) कंचुकी! यह क्या? नगर में "चन्द्रिकोत्सव" कहीं नहीं मालूम पड़ता; क्या तूने सब लोगों से ताकीद करके नहीं कहा था कि उत्सव होय?
कंचुकी---महाराज! सब से ताकीद कर दी थी।