पीछे चाणक्य को चन्द्रगुप्त ने कुछ चिढ़ा दिया और चाणक्य ने भी उसकी बात न सह कर चन्द्रगुप्त की आज्ञा भंग करके उसको दुःखी कर रक्खा है, यह मै भली भॉति जानता हूँ।
राक्षस---(हर्ष से) मित्र विराधगुप्त! तो तुम इसी सपेरे के भेस से फिर कुसुमपुर जाओ और वहाँ मेरा मित्र रतनकलस नामक कवि है उससे कह दो कि चाणक्य के आज्ञा भँगादिकों के कवित्त बना बनाकर चन्द्रगुप्त को बढ़ावा देता रहे और जो कुछ काम हो जाय वह करभक से कहला भेजे।
विराधगुप्त---जो आज्ञा (जाता है)
(प्रियम्बदक आता है)
प्रियम्बदक---जय हो महाराज! शकटदास कहते हैं कि यह तीन आभरण बिकते है इन्हें आप देखें।
राक्षस---(देख कर) अहा यह तो बड़े मूल्य के गहने हैं, अच्छा शकटदास से कहदो कि दाम चुका कर ले लें।
प्रियम्बदक---जो आज्ञा (जाता है)।
राक्षस---तो अब हम भी चल कर करभक को कुसुमपुर भेजें (उठता है)। अहा! क्या उस मृतक चाणक्य से चन्द्रगुप्त से बिगाड़ हो जायगा, क्यों नहीं? क्योंकि सब कामो को सिद्ध ही देखता हूँ।
चन्द्रगुप्त निज तेज बल, करत सबन को राज।
तेहि समझत चाणक्य यह, मेरो दियो समाज॥
अपनी २ करि चुके, काज रह्यो कछु जौन।
अब जो आपुस में लड़ें, तो बड़ अचरज कौन॥
(जाता है)