शकटदास---मित्र! यह मंत्री जी के नाम की मोहर है इससे तुम इसको मंत्री को दे दो, तो इसके बदले तुम्हें बहुत पुरस्कार मिलेगा।
सिद्धार्थक---महाराज! मेरे ऐसे भाग्य कहाँ कि आप इसे लें।
(मोहर देता है)
राक्षस---मित्र शकटदास! इसी मुद्रा से सब काम किया करो।
शकटदास---जो आज्ञा।
सिद्धार्थक---महाराज मैं कुछ बिनती करूँ?
राक्षस---हाँ हाँ! अवश्य करो।
सिद्धार्थक---यह तो आप जानते ही हैं कि उस दुष्ट चाणक्य की बुराई करके फिर मैं पटने में घुस नहीं सकता इससे कुछ दिन आप ही के चरणों की सेवा किया चाहता हूँ।
राक्षस---बहुत अच्छी बात है, हम लोग तो ऐसा चाहते ही थे, अच्छा है, यहीं रहो।
सिद्धार्थक---(हाथ जोड़ कर) बड़ी कृपा हुई।
राक्षस---मित्र शकटदास! ले जाओ, इसको उतारो और सब भोजनादिक का ठीक करो।
शकटदास---जो आज्ञा।
(सिद्धार्थक को लेकर जाता है)
राक्षस मित्र विराधगुप्त! अब तुम कुसुमपुर का वृत्तान्त जो छूट गया था सो कहो! वहाँ के निवासियों को मेरी बातें अच्छी लगती हैं कि नहीं?
विराधगुप्त---बहुत अच्छी लगती हैं, वरन् वे सब तो आप ही के अनुयायी है।
राक्षस---ऐसा क्यों?
विराधगुप्त---इसका कारण यह है कि मलयकेतु के निकलने के