राक्षस---प्रियम्बदक! अरे जो सच ही कहता है तो उनको झट- पट लाता क्यों नहीं।
प्रियम्बदक---जो आज्ञा (जाता है)
(सिद्धार्थक के संग शकटदास आता है।)
शकटदास---देख कर (आप ही आप)
वह सूली गढ़ी जो बड़ी दृढ़ के,
सोई चन्द्र को राज थिरयौ मन तें।
लपटी वह फाँस की डोर सोई,
मनु श्री लपटी वृषलै मन तें॥
बजी डौड़ी निरादर की नृप नन्द के,
सोऊ लख्यो इन आँखन तें।
नहिं जान परै इतनो हूँ भये,
केहि हेत न प्रान कढ़े तन तें॥
(राक्षस को देख कर) यह मन्त्री राक्षस बैठे हैं। अहा!
नन्द गये हू नहिं तजत, प्रभु सेवा को स्वाद।
भूमि बैठि प्रगटत मनहुँ, स्वामिभक्त मरजाद॥
(पास जाकर) मन्त्री की जय हो।
राक्षस---(देख कर आनन्द से) मित्र शकटदास! आओ मुझसे मिल लो, क्योंकि तुम दुष्ट चाणक्य के हाथ से बच के आये हो।
शकटदास---(मिलता है)।
राक्षस---(मिल कर) यहाँ बैठो।
शकटदास---जो आज्ञा (बैठता है)।
राक्षस---मित्र शकटदास! कहो तो यह आनन्द की बात कैसे हुई