राक्षस---मित्र! कहो और भी सैकड़ों मित्रों का नाश सुनने को ये पापी कान उपस्थित है।
विराधगुप्त---यह सब सुन कर चन्दनदास ने बड़े कष्ट से अापके कुटुम्ब को छिपाया।
राक्षस---मित्र! उस दुष्ट चाणक्य के तो चन्दनदास ने विरुद्ध ही किया।
विराधगुप्त---तो मित्र का बिगाड़ करना तो अनुचित ही था।
राक्षस---हॉ, फिर क्या हुआ?
विराधगुप्त---तब चाणक्य ने आपके कुटुम्ब को चन्दनदास से बहुत मांगा पर उसने नहीं दिया, इस पर उस दुष्ट ब्राह्मण ने---
राक्षस---(घबड़ा कर) क्या चन्दनदास को मार डाला?
विराधगुप्त---नहीं, मारा तो नहीं, पर स्त्री पुत्र धन समेत बाँध कर बन्दीघर में भेज दिया।
राक्षस---तो क्या ऐसा सुखी होकर कहते हो कि बन्धन में भेज दिया? अरे! यह कहो कि मन्त्री राक्षस को कुटुम्ब सहित बाँध रक्खा है।
(प्रियम्बदक आता है)
प्रियम्बदक---जय जय महाराज! बाहर शकटदास खड़े हैं।
राक्षस---(आश्चर्य से) सच ही!
प्रियम्बदक---महाराज---आपके सेवक कभी मिथ्या बोलते हैं।
राक्षस---मित्र विराधगुप्त! यह क्या?
विराधगुप्त---महाराज! होनहार जो बचाया चाहे तो कौन मार सकता है?