कन्या जो विष की गई, ताहि हतन के काज।
तामों मारयौ पर्वतक, जाको आधो राज॥
सबै नसे कलबल सहित, जे पठये बध हेत।
उलटी मेरी नीति सब, मौर्यहिं को फल देत॥
विराधगुप्त—महाराजे! तब भी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिये
प्रारम्भ ही नहि विघ्न के भय अधम जन उद्यम सजें।
पुनि करहिं तौकोऊविघ्न सों डरि मध्य ही मध्यम तजै॥
घरि लात विघ्न अनेक पै निरभय न उद्यम ते ढरैं।
जे पुरुष उत्तम अन्त में ते सिद्ध सब कारज करें॥
और भी—
का सेसहि नहि भार पै, धरती देत न डारि।
कहा दिवसमनि नहिं थकत पै नहिं रुकत विचारि॥
सज्जन ताको हित करत, जेहि किये अंगीकार।
यहै नेम सुकृतीन को, निज जिय करहु विचार॥
राक्षस—मित्र! यह क्या तू नहीं जानता कि मैं प्रारब्ध भरोसे नहीं हूँ? हाँ, फिर।
विराधगुप्त—तय से दुष्ट चाणक्य चन्द्रगुप्त की रक्षा में चौकन्ना रहता है और इधर उधर के अनेक उपाय सोचा करता है और पहिचान-पहिचान के नन्द के मित्रों को पकड़ता है।
राक्षस—(घबड़ा कर) हाँ! कहो तो, मित्र उसने किसे किसे पकड़ा है।
विराधगुप्त—सम के पहिले तो जीवसिद्धि क्षपणक को निरादर कर के नगर से निकाल दिया।