पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/६९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५२
मुद्रा-राक्षस

राक्षस---मित्र! चन्द्रगुप्त के नगर प्रवेश के पीछे मेरे भेजे हुए विष देने वाले लोगों ने क्या क्या किया यह सुनना चाहता हूँ।

विराधगुप्त---सुनिये-शक, यवन, किरात, काम्बोज, पारस, वाहीकादिक देश के चाणक्य के मित्र राजाओ की सहायता से चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर के बलरूपी समुद्र से कुसुमपुर चारों ओर से घिरा हुआ है।

राक्षस--(कृपाण खींच कर क्रोध से) है! मेरे जीते कौन कुसुमपुर घेर सकता है? प्रवीरक! प्रवीरक!

चढ़ौ लै सरै धाइ घेरौ अटा कों।
धरौ द्वार पै कुंजरै ज्यो घटा कों॥
कहाँ जोधनै मृत्यु को जीति धावै।
चलै सङ्ग भै छांड़ि कै कीर्ति पावै॥

विराधगुप्त---महाराज! इतनी शीघ्रता न कीजिये मेरी बात सुन लीजिये।

राक्षस---कौन बात सुने? अब मैने जान लिया कि इसी का समय आगया है (शस्त्र छोड कर ऑख में आँसू भरकर) हा! देवनन्द! राक्षस को तुम्हारी कृपा कैसे भूलैगी?

है जहँ भएड खड़े गज मेघ के आज्ञा करौ तहाँ राक्षस! जायकै।
त्यो ये तुरङ्ग अनेकन हैं, तिनहूँ के प्रबन्धहि राखौ बनायकै॥
पैदल ये सब तेरे भरोसे है, काज करौ तिन को चित लायकै।
यो कहि एक हम तुम मानत हे, निज काज हजार बनायकै॥

हॉ फिर?

विराधगुप्त---तब चारों ओर से कुसुम नगर घेर लिया और नगरवासी विचारे भीतर ही भीतर घिरेघिरे