प्रियम्बदक---जो आज्ञा (सँपेरें के पास जाकर) चलिए, मन्त्रीजी आपको बुलाते हैं।
सॅपेरा---(मन्त्री के सामने जाकर और देख कर आप ही आप) अरे यही मन्त्री राक्षस है अहा!---
लै बाम बाहु-लताहि राखत कण्ठ सौं खसि खसि परै।
तिमि धरे दच्छिन बाहु काहू गोद में बिचलै गिरै॥
जा बुद्धि के डर होइ संकित-नृप हृदय कुच नहीं धरै।
अजहूँ न लक्ष्मी चन्द्रगुप्तहि गाढ़ आलिंगन करै॥
(प्रकाश) मन्त्री की जय हो।
राक्षस---(देख कर) अरे विराध---(संकोच से बात उढ़ाकर) प्रियम्बदक! मैं जब तक सर्पों से अपना जी बहलाता हूँ तब तक सब को लेकर तू बाहर ठहर।
प्रियम्बदक---जो आज्ञा।
(बाहर जाता है)
राक्षस---मित्र विराधगुप्त! इस आसन पर बैठो।
विराधगुप्त---जो आज्ञा (बैठता है)।
राक्षस---(खेद के सहित निहार कर) हा! महाराज नन्द के आश्रित लोगों की यह अवस्था! (रोता है)।
विराधगुप्त---आप कुछ शोच न करें, भगवान की कृपा से शीघ्र ही वही अवस्था होगी।
राक्षस---मित्र विराधगुप्त! कहो, कुसुमपुर का वृत्तान्त कहो।
विराधगुप्त---महाराज! कुसुमपुर का वृत्तान्त बहुत लम्बा चौड़ा है, इससे जहाँ से आशा हो वहाँ से कहूँ।