पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/६३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६
मुद्रा-राक्षस

आकाश की ओर देख कर) क्या कहा कि यह स्वामी राक्षस मन्त्री का घर है, इसमें मैं घुसने न पाऊँगा, तो आप जायँ, महाराज! मैं तो अपनी जीविका के प्रभाव से सभी के घर आता-जाता हूँ। अरे क्या वह गया? (चारों ओर देखकर) अहा! बड़े आश्चर्य की बात है, जब मैं चाणक्य की रक्षा में चन्द्रगुप्त को देखता हूँ तब समझता हूँ कि चन्द्रगुप्त ही राज्य करेगा, पर जब राक्षस की रक्षा में मलयकेतु को देखता हूँ तब चन्द्रगुप्त का राज्य गया सा दिखाई देता है। क्योंकि---

चाणक्य ने लै जदपि बॉधी बुद्धि रूपी डोर सों।
करि अचल लक्ष्मी मौर्यकुल में नीति के निज जोरसों॥
पै तदपि राक्षस चातुरी करि हाथ में ताकौ करै।
गहि ताहि खींचत आपुनी दिस मोहि यह जानी परै॥

सो इन दोनों परम नीति चतुर मन्त्रियों के विरोध में नन्द-कुल की लक्ष्मी संशय में पड़ी है।

दोऊ सचिव विरोध सों, जिमि बन जुग गजराय।
हथिनी सी लक्ष्मी विचल, इत उत झोंका खाय॥

तो चलू अब मन्त्री राक्षस से मिलूँ।

(जवनिका उठती है और आसन पर बैठा राक्षस और पास प्रियम्बदक नामक सेवक दिखाई देते हैं)

राक्षस---(ऊपर देख कर अॉखो में आँसू भर कर) बड़े कष्ट की बात है---

गुन-नीति-बल सों जीति अरि जिमि, आप जादवगन हयो।
तिमि नन्दको यह विपुलकुल, विधि बामसों सब नसि गयो॥
एहि सोच मे मोहि दिवस अरु निशि, नित्य जागत बीतहीं।
यह लखौ चित्र विचित्र मेरे भाग के बिनु भीतहीं॥