राक्षस का कुटुम्ब छिपाना वह कभी न सहेगा; इसी से उसका कुटुम्ब देकर तुमको अपने प्राण और कुटुम्ब बचाना हो तो बचाओ।
चन्दन॰—महाराज। क्या आप मुझे डर दिखाते हैं, मेरे यहाँ अमात्य राक्षस का कुटुम्ब नहीं है, पर जो होता तो भी मैं न देता।
चाणक्य—क्या चन्दनदास! तुमने यही निश्चय किया है?
चन्दन॰—हाँ! मैंने यही दृढ़ निश्चय किया है।
चाणक्य—(आप ही आप) वाह चन्दनदास! वाह! क्यों न हो!
दूजे के हित प्राण दे, करै धर्म्म प्रतिपाल।
को ऐसो शिवि के बिना, दूजो है या काल॥
(प्रकाश) क्या चन्दनदास, तुमने यही निश्चय किया है? चन्दन॰—हाँ! हाँ! मैने यही निश्चय किया है।
चाणक्य—(क्रोध से) दुरात्मा दुष्ट बनिया! देख राजकोष का कैसा फल पाता है!
चन्दन॰—(बाँह फैलाकर) मैं प्रस्तुत हूँ, आप जो चाहिए अभी दण्ड दीजिए।
चाणक्य—(क्रोध से) शारंगरव! कालपाशिक, दण्डपाशिक से मेरी आज्ञा कहो कि अभी इस दुष्ट बनिये को दण्ड दें। नहीं, ठहरो, दुर्गपाल विजयपाल से कहो कि इस के घर का सारा धन ले लें और इसको कुटुम्ब समेत पक्ड़ कर बाँध रक्खें, तब तक मैं चन्द्रगुप्त से कहूँ, वह आप ही इसके सर्वस्व और प्राण हरण की आज्ञा देगा।
शिष्य—जो आज्ञा महाराज! सेठ जी इधर आइये।