चन्द्रगुप्त के बड़े-बड़े अधिकारी भी राजद्रोह दिखाकर मलयकेतु
के साथ हो लिये हैं। अब चाणक्य को यह चिन्ता है कि किसी
प्रकार राक्षस हाथ में आये । चाणक्य इसी चिन्ता में है कि
उसका दूत निपुणक उसे राक्षस की अंगूठी देता है। वह चन्द-
नदास जौहरी के घर मिली है। चन्दनदास के घर पर राक्षस
अपना कुटुम्ब छोड़ गया था। राक्षस की मुद्रा पाकर चाणक्य
अत्यन्त प्रसन्न हुआ । दूत ने तीन व्यक्तियों को चन्द्रगुप्त का
विरोधी बताया था। एक तो जीवसिद्ध क्षपणक था। यह चाणक्य
का ही गुप्तचर था, राक्षसाको छलने के लिए राजद्रोह में जीव-
सिद्ध को देश निकाला दिला दिया । दूसरा था शकटदास
कायस्थ । चाणक्य ने इसके पीछे सिद्धार्थक को लगा दिया था।
सिद्धार्थक के द्वारा शकटदास के हाथ से बे सिरनामे का एक
विशेषार्थी पत्र लिखवा कर उस पर राक्षस की मुहर लगाकर
वह मुहर की अंगूठी और पत्र सिद्धार्थक को दे दी, और शकट-
दास को शूली देने की आज्ञा सुना दी । सिद्धार्थक शकटदास
को शूली से छुड़ाकर भाग गया। शकटदास का इस कारण और
भी विश्वास पात्र बन गया । ये दोनों भी राक्षस के यहाँ पहुँचे।
तीसरा चन्द्रगुप्त विरोधी चन्दनदास जौहरी था उसे राक्षस
का कुटुम्ब छिपाने और चन्द्रगुप्त को उस कुटुम्ब को न देने के
अपराध में बन्दी कर लिया।
शकटदास भाग कर राक्षस के पास पहुंचा। मित्र से मिल
कर राक्षस अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने सिद्धार्थक को अपने
आभूषण पुरस्कार में दिये। वे आभूषण राक्षस वाली मुद्रा से
मुद्रित कराके राक्षस के पास ही सिद्धार्थक ने रखवा दिये।
स्वयं भी राक्षस की सेवा में रहने लगा। राक्षस ने वह मुद्रा
सिद्धार्थक से लेकर शकटदास को दी और अपना सारा कार्य
उसी से करने की आज्ञा दी। उधर पर्वतक के आभूषण