ठीक ऐसा ही हुआ-जब राक्षस के साथ नन्द श्राद्धशाला
में आया एक और अनिमन्त्रित ब्राह्मण को आसन पर बैठा हुआ
और श्राद्ध के अयोग्य देखा तो चिड़ कर आज्ञा दी कि इसको
बाल पकड़ कर यहाँ से निकाल दो। इस अपमान से ठोकर खाये
हुये सर्प की-भाँति अत्यन्त क्रोधित होकर शिखा खोल कर
चाणक्य ने सबके सामने प्रतिज्ञा की कि जब तक इस दुष्ट राजा
का सत्यानाश न कर लू गा तब तक शिखा न बॉधू गा । यह
प्रतिज्ञा करके बड़े क्रोध से राजभवन से चला गया।
शकटार अवसर पाकर' चाणक्य को मार्ग में से अपने घर ले आया और राजा की अनेक निन्दा करके उसका क्रोध ओर भी बढ़ाया और अपनी सब दुर्दशा कह कर नन्द के नाश में सहायता करने की प्रतिज्ञा की । चाणक्य ने कहा कि जब तक हम राजा के घर का भीतरी हाल न जानें कोई उपाय नहीं सोच सकते । शकटार ने इस विषय में विचक्षणा की सहायता देने का वृत्तान्त कहा और रात को एकान्त में बुलाकर चाणक्य के सामने उससे सब बात का करार ले लिया।
महानन्द के नौ पुत्र थे। आठ विवाहिता रानी से और
एक चन्द्रगुप्त मुरा नाम की एक नाइन स्त्री से। इसी से
चन्द्रगुप्त को मौर्य और वृषल भी कहते हैं।, चन्द्रगुप्त बड़ा
बुद्धिमान् था। इसी से और आठों भाई इससे भीतरी द्वेष
रखते थे। चन्द्रगुप्त की बुद्धिमानी की बहुत सी कहानियाँ हैं
कहते हैं कि एक बेर रूम के बादशाह ने महानन्द के पास एक
कृत्रिम सिंह लोहे की जालो के पिञ्जड़े में बन्द करके भेजा और
कहला दिया कि पिञ्जड़ा टूटने न पावे और सिंह इसमे से निकल
जाय । महानन्द और उसके आठ सौ पुत्रों ने इसको बहुत कुछ
सोचा, परन्तु बुद्धि ने कुछ काम न किया। चन्द्रगुप्त ने विचारा