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मुद्रा-राक्षस

उसकी जड़ में मठा डालता जाता है, पसीने से लथपथ है, परन्तु कुछ भी शरीर की ओर ध्यान नहीं देता। चारों ओर कुशा के बड़े २ ढेर लगे हुए हैं। शकटार ने आश्चर्य से ब्राह्मण से इस श्रम का कारण पूछा । उसने कहा-मेरा नाम विष्णुगुप्त चाण- क्य है। मैं ब्रह्मचर्य में, नीति, वैद्यक, ज्योतिष, रसायन आदि संसार की उपयोगी सब विद्या पढ़कर विवाह की इच्छा से नगर की ओर आया था, किन्तु कुशगड़ जाने से मेरे मनोरथ में विघ्न हुआ, इससे जबतक इन' बाधक कुशाओं का सर्वनाश न कर लूंगा और काम न करूंगा । मठा इस वास्ते इनकी जड़, में देती हूँ जिससे पृथ्वी के भीतर इनकी. मूल भी भस्म हो जाय ।

शकार के जी में यह बात आई कि ऐसा पक्का ब्राह्मण जो किसी प्रकार राजा से क्रुद्ध हो जाय तो उसका जड़ से नाश करके छोड़े। यह सोच कर उसने चाणक्य से कहा कि जो आप नगर में चलकर पाठशाला स्थापित करें तो अपने को मैं बड़ा अनुगृहीत समझू । मैं इसके बदले बेलदार लगाकर यहाँ की सब कुशाओं को खुदवा डालू गा। चाणक्य इसपर सहमत हुआ और नगर मे आकर एक पाठशाला स्थापित की । बहुत से विद्यार्थी पढ़ने आने लगे और पाठशाला बड़ी धूमधाम से चल निकली।

अब शकटार इस सोच में हुआ कि चाणक्य और राजा में किस चाल से बिगाड़ हो। एक दिन राजा के घर में श्राद्ध था, उस अवसर को शकटार अपने मनोरथ सिद्ध होने का अच्छा समय सोच कर चाणक्य को श्राद्ध का न्यौता देकर अपने साथ ले आया और श्राद्ध के आसन पर बिठला कर चला गया। क्योंकि वह जानता था कि चाणक्य का रङ्ग काला, आँखें लाल और दाँत काले होने के कारण नन्द उसको आसन पर से उठा देगा, जिससे चाणक्य अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसका सर्वनाश करेगा।