लेने की इच्छा से अपने प्राण नहीं त्याग किए और थोड़े बहुत ,
भोजन इत्यादि से शरीर को जीवित रक्खा। रात दिन इसी
सोच मे रहता कि किस उपाय से वह अपना यदला ले सकेगा।
कहते हैं कि राजा महानन्द एक दिन हाथ मुँह धोकर हॅसते २ जनाने मे आरहे थे। विचक्षणा नाम की एक दासी जो राजा के मुॅह लगने के कारण कुछ धृष्ट हो गई थी, राजा को हॅसता देख कर हँस पड़ी। राजा उसकी ढिठाई से बहुत चिंदे और उससे पूछा-"तू क्यों हॅसी" ? उसने उत्तर दिया-"जिस बात पर महाराज हंसे उसी पर मैं भी हंसी। महानन्द इस बात पर और भी चिढ़ा और कहा "अभी यतला, मैं क्यों हँसा, नहीं तो तुझको प्राणदण्ड होगा." दासी से और कुछ उपाय न बेन पड़ा और उसने घबड़ा कर इसके उत्तर देने को एक महीने की मुहलत चाही। राजा ने कहा-"आज से ठीक एक महीने के भीतर जो उत्तर न देगी तो कभी तेरे प्राण न बचेंगे।"
विचक्षणा के प्राण उस समय तो बच गये, परन्तु महीने के
जितने दिन बीतते थे मारे चिन्ता के वह मरी जाती थी। कुछ
सोच विचार कर वह एक दिन कुछ खाने-पीने की सामग्री लेकर
शकटार के पास गई और रो रो कर अपनी सब विपत्ति कहने
लगी। मन्त्री ने कुछ देर तक सोच कर उस अवसर की सर्व
घटना पूछी और हँस कर कहा-"मैं जान गया.राजा क्यों हँसे
थे। कुल्ला करने के समय पानी के छोटे छीटों पर राजा को बर्ट-
बीज की याद आई, और यह भी ध्यान हुआ कि ऐसे बड़े बड़ के वृक्ष इन्हीं छोटे बीजो के अन्तर्गत हैं.। किन्तु भूमि पर पड़ते ही वह जल के छींटे नष्ट होगये। राजा अपनी इसी भावना को
याद करके हँसते थे।" विचक्षणा ने हाथ छोड़कर कहा-"यदि
आपके अनुमान से मेरे प्राण की रक्षा होगी तो मैं जिस तरह से