यहाँ कवि ने नन्दवंश की जो राजश्री है उसको एक स्त्री रूप ठहराया है और उस पर चन्द्रगुप्त का अधिकार नीति संगत नहीं होने के कारण उसको दाईं और बैठी हुई कल्पना किया है।
अर्थ―नन्दवंश की राजश्री चन्द्रगुप्त को अपनाने में संकोच करती है। (क्योंकि राक्षस मंत्री चन्द्रगुप्त को राज्य से गिराने के प्रयत्न में लगा हुआ था और चाणक्य उपकी रक्षा करने पर था ) वह अपना लता रूप बायाँ हाथ चन्द्रगुप्त के गले पर रखती है पर वह गिर-गिर पड़ता है और दाँये हाथ को भी गोद के बीच मे ले गिरता है अर्थात् जैसे ही दोनों हाथों को आलिं- गन करने को रखती है परन्तु गाढ़ा स्नेह नहीं होने से (पेट में डरती है कि कहीं राक्षस फिर इसको पदच्युत न करदे) उससे छाती से छाती नहीं मिलती अर्थात् गाढ़ालिङ्गन अब भी नहीं करती।
पृष्ठ ५५―कर्ण―कुन्ती के पुत्र थे। कुन्ती बचपन से ही ऋषि-मुनियों की सेवा अधिक किया करती थी। इस पर दुर्वासा मुनि ने प्रसन्न होकर उसको वह विद्या सिखा दी कि जिस-जिस देवता की वह पूजा करे उसके प्रसाद से वह आपत्तिकाल में पुत्र पैदा कर सके। उसने मुनि की शिक्षानुसार परीक्षार्थ सूर्य की प्रार्थना की और कर्ण पैदा हुए। इस समय कुन्ती क्वारी थी इसलिए उसने अपवाद वश कर्ण को नदी में बहा दिया। वहाँ से सूत उठा ले गया और पालनपोषण किया। इन्होंने परशुरामजी से विद्या सीखी।
जब कौरव पाण्डव द्रोणाचार्यजी से धनुर्विद्या सीख चुके तथ उन सब की परीक्षा एक रङ्ग भूमि मे हुई। कर्ण भी वहाँ आये, इन्होने अर्जुन का बल देख कर उनसे लड़ना चाहा पर कृपाचार्यजी ने इनको राजपुत्र न होने के कारण युद्ध से रोक