पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१६८

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उपसंहार क समझाई । अन्त बुराई सिर पै ऐहै रहि जैहो मुह बाई ॥ फिर पछितैहो रे भाई ॥६॥ (पंचम अङ्क की समाप्ति और षष्ठ अङ्क के प्रारम्भ में) काफी ताल होली का छलियन सों रहो सावधान नहिं तो पछताओगे। इनकी बातन मै फैसि रहिहौ सयहि गॅवाओगे । स्वारथ लोभी जन सों आखिर दगा उठाओगे। तब सुख पैहो जब सॉचन सों नेह यढ़ाओगे । छलियन सो० ॥७॥ (छठे अङ्क की समाप्ति और सातवे अङ्क के प्रारम्भ मे ) ('जिन के मन मे सियाराम बसे' इस धुन की) जग सूरज चन्द टरै तो टरै पै न सज्जन नेहु कयौं विचलै । धन सम्पति सर्वस गेह नसौ नहिं प्रेम की मेड़ सो एड़ टले 11 सतवादिन को तिनका सम, प्रान रहै तो रहै वा ढलै तो ढलै । निज मोत की प्रीत प्रतीत रहौ इक और सबै जग जाउ भलै ।।८।। (अन्त में गाने को) ( बिहाग-श्लोक के अर्थ अनुसार) हरौ हरि रूप सबै जग याधा। जा सरूप सो धरिन उधारी निज जन कारज साधा । जिमि तब दाढ़ अप लै राखी महि हति असुर गिरायो। कनक दृष्टि म्लेच्छन हूँ तिमि किन अब लौं मारि नसायो ।। आरज राज रूप तुम तासों मॉगत यह बरदाना। प्रजा कुमुदगन चन्द्र नृपति को करहु सकल कल्याना ।।६।। (विहाग ठुमरी) पूरी अमी की कटोरिया सी चिरजीओ सदा विकटोरिया रानी । सूरज चन्द प्रकाश करें जल लौ रहै सात हूँ सिन्धु मैं