पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१५१

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१३६ मुद्रा राक्षस दुख जोई।। पुरुष-कि देव! हमारे घर में जो कुछ कुटुम्ब पालन का द्रव्य है। आप सब ले लें, पर हमारे मित्र चन्दनदास को छोड़ दें। राक्षस-(आप ही आप ) वाह जिष्णुदास ! तुम धन्य हो! तुम ने मित्र स्नेह का निर्वाह किया। जो धन के हित नारी तज पति पूत तजै पितु सीलहिं खोई । भाई सो भाई लरें रिपु से पुनि मित्रता मित्र तजै ता धन को बनियाँह गिन्यौ न दियो दुख मीत सो आरत होई। स्वारथ अर्थ तुम्हारोइ है तुमरे सम और न या जग कोई ॥ (प्रकाश ) इस बात पर मौर्य ने क्या कहा ? पुरुष-आर्य ! इस पर चन्द्रगुप्त ने उससे कहा कि जिष्णु- दास ! हम ने धन के हेतु चन्दनदास को नहीं दण्ड दिया है। इसने अमात्य राक्षस का कुटुम्ब अपने घर में छिपाया, बहुत माँगने पर भी न दिया। अब भी जो यह दे दे तो छूट जाय, नहीं तो इसको प्राण- दण्ड होगा तभी हमारा क्रोध शान्त होगा और दूसरे लोगों को भी इससे डर होगा। यह कह उस को वघस्थान में भेज दिया। जिष्णुदास ने कहा कि 'हम कान से अपने मित्र का अमंगल सुनने के पहिले मर जाये तो अच्छी बात है" और अग्नि में प्रवेश करने को बन मे चले गए हमने भी इसी हेतु कि उनका मरण न सुनें, यह निश्चय किया कि फॉसी लगा कर मर जायें और इसी हेतु यहाँ आए हैं राक्षस-(घबडा कर) अभी चन्दन दास को मारा तो नहीं ? पुरुष-आर्य ? अभी नहीं मारा है, बारम्बार अब भी उनसे अमात्य राक्षस का कुटुम्ब मॉगते हैं, और वह मित्र-