पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१५०

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तृतीय अङ्क १३५ पुरुष-हाँ, आर्य। राक्षस-(घबढा कर आप ही श्राप ) अरे, इस के मित्र का प्रिय मित्र तो चन्दनदास ही है और यह कहता है कि सुहृद् विनाश ही उस के विनाश का हेतु है, इससे मित्र के स्नेह से मेरा चित्त बहुत ही घबड़ाता है। (प्रकाश) भद्र ! तुम्हारे मित्र का चरित्र हम सविस्तार सुना चाहते हैं। पुरुष-आर्य! अब मैं किसी प्रकार से मरने में विलम्ब नहीं कर सकता। राक्षस-यह वृत्तान्त तो अवश्य सुनने के योग्य है, इससे कहो। पुरुष-क्या करें। आप ऐसा हठ करते हैं तो सुनिए । राक्षस-हॉ! जी लगाकर सुनते हैं, कहो। पुरुष-आपने सुना ही होगा कि इस नगर मे प्रसिद्ध जौहरी सेठ चन्दनदास है। राक्षस-(दुःख से आप ही आप ) दैव ने हमारे विनाश का द्वार अब खोल दिया । हृदय ! स्थिर हो, अभी न जाने क्या क्या कष्ट तुम को सुनना होगा। (प्रकाश) भद्र ! हमने भी सुना है कि वह साधु अत्यन्त मित्र- वत्सल हैं। पुरुष-वह जिष्णुदास के अत्यन्त मित्र हैं। राक्षस--(आप ही नाप ) यह सब हृद्य के हेतु शोफ का वन- पात हैं। (प्रकाश ) हॉ, आगे। पुरुष-सो जिष्णुदास ने मित्र की भॉति चन्द्रगुप्त से बहुत विनय किया। राक्षस-क्या क्या ?