वह अन्यन्य कहाँ हैं ? यों चाणक्य ने भले ही निजी कारण से
नन्द वंश का नाश किया हो पर सत्य यह है कि नन्द वंश के
अन्याय से समाज पीड़ित था। पर इस नाटक में तो उस
चरित्र की ओर केवल चाणक्य की इंढ निश्चय-शीलता का
ज्ञान कराने के लिए संकेत हुआ है। इस नाटक मे तो चन्द्रगुप्त
के राज्य को दृढ़ और अखंड बनाने में ही हम उसे 'तल्लीन पाते
हैं। उसका इसमें किंचित भी निजी स्वार्थ नहीं । वह राज्य से
कोई वृत्ति भी नहीं लेता। एक साधारण कुटी में रहता है और
शिष्यों द्वारा लाये अन्न पर निर्वाह करता है। राक्षस भी ऐसा
ही निस्पृहःहै। साथ ही स्वामिभक्ति में आदर्श है। राज-गुरुषों
और मन्त्रियो के ये अनुकरणीय आदर्श किस' युग में :शिक्षा
देने में असमर्थ रहेंगे ?,फिर नाटक का फल एक.और महान
शिक्षा देता है, गुणज्ञ शत्रु को जीत कर अपना बनाओ। इसी
कारण तो यह नाटक 'परिणति' का नाटक है, ध्वंश का नहीं ।
चाणक्यं ने नीति से वह कार्य सिद्ध किया है, जो तलवारों से
भी असंभव था । परिस्थितियों का चक्र हृदय का परिवर्तन कर
देता है यह मर्म की बात इस नाटक मे ध्वनित है। राक्षस अपने
वैर को छोड़कर चन्द्रगुप्त का मन्त्री बन गया। छल आदि का
उपयोग इस नाटक में हुआ है, इससे केवल यही सिद्ध होता है
कि नाटककार राजनीति में छल को क्षम्य मानता है। और वह
छल एक सदुद्देश्य को प्रयुक्त हुआ है तो अपना दोष खो
बैठा है।
एक आपत्ति यह की जाती है कि नाटक में जीवसिद्ध तो
राज होता है, उसने पर्वतक पर विषकन्या का प्रयोग किया,
पर्वतक चन्द्रगुप्त का मित्र था। उधर शंकटदास और चन्दन-
दास राजद्रोही मात्र थे। फिर शकटदास और चन्दनदास को
तो क्यों शूली का दण्ड दिया गया और क्यों जीवसिद्धि को