पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४८

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छठा अङ्क १३३ (खो में प्रॉसू भर कर ) हाय ! बड़े दुःख की बात है। मेरे बिनु अब जोति दल, सत्रु पाइ बल घोर । मोहि सुनावन हेत ही, कीन्हो शब्द कठोर || पुरुष अब तो यह बैठे हैं तो अब आर्य चाणक्य की आज्ञा पूरी करें। (राक्षस की अोर न देख कर अपने गले मे फॉसी लगाना चाहता है।) राक्षस-दिख कर श्राप ही अाप) अरे यह फॉसी क्यो लगाता है। निश्चय कोई हमारा सा दुखिया है। जो हो पूछे तो सही (प्रकाश ) भद्र यह क्या करते हो। पुरुष-(रोकर) मित्रो के दुःख से दुखी होकर हमारे ऐसे मन्द- भाग्यो का जो कर्तव्य है। राक्षस-(आप ही आप ) पहले ही कहा था, कोई हमारा सा दुखिया है । (प्रकाश) भद्र' जो अति गुप्त वा किसी विशेष कार्य की बात न हो तो हम से कहो कि तुम क्यो प्राण त्याग करते हो? पुरुष-आर्य ! न तो गुप्त ही है न कोई बड़े काम की बात है, परन्तु मित्र के दुःख से मै अब छिन भर भी ठहर नहीं सकता। । राक्षस-(अाप ही आप दुख से ) मित्र की विपत्ति मे हम पराये लोगो की भॉति उदासीन होकर 'जो देर कहते हैं मानो उसमें शीघ्रता करने की यह अपना दुःख कहने के बहाने शिक्षा देता है। (प्रकाश) भद्र । जो रहस्य नहीं है तो हम सुनना चाहते हैं कि तुम्हारे दुःख का क्या कारण है ? यहा संस्कृत में व्यसनि ब्रह्मचारिन् सम्बोधन है। -