पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/१४२

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छठा अङ्क १२७ (दोनों गले से मिलते हैं।) समिद्धार्थक-भला! यहाँ कुशल कहाँ कि तुम्हारे ऐसा मित्र यहुत दिन पीछे घर भी आया तो बिना मिले फिर चला गया। सिद्धार्थक-मित्र क्षमा करो मुझको देखते ही आर्य चाणक्य ने आजा दी कि इस वृत्तान्त को अभी चन्द्रमा सदृश प्रकाशित शोभा वाले परम प्रिय महाराज प्रिय- दर्शन से जाकर कहो। मैं उसी समय महाराज के पास चला गया और उनसे निवेदन करके यह सब पुरस्कार पाकर तुमसे मिलने को तुम्हारे घर अभी जाता ही था। समिद्धार्थक-मित्र ! जो सुनने के योग्य हो तो, महाराज प्रिय- दर्शन से जो प्रिय वृत्तान्त कहा है वह हम भी सुने। सिद्धार्थक-मित्र ! तुमसे भी कोई बात छिपी है ! सुनो ! आर्य चाणक्य की नीति से मोहितमति होकर उस दुष्ट मलयकेतु ने राक्षस को दूर कर दिया और चित्र- वर्मादिक पाँचो प्रवल राजों को मरवा डाला यह देखते ही और सब राजे अपने प्राण और राज्य का संशय समझ कर उसको छोड़ कर सैना सहित अपने-अपने देश चले गए। जब शत्रु ऐसी निर्वल अवस्था में हुआ, तो भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुरात, बलगुप्त, राजसेन, भागुरायण, रोहिताक्ष, विजयवर्मा इत्यादि लोगो ने मलयकेतु को कैद कर लिया। समिद्धार्थक-मित्र ! लोग तो यह जानते हैं कि भद्रभट इत्यादि लोग महाराज चन्द्रश्री को छोड़कर मलयकेतु से