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पञ्चम अङ्क

मलयकेतु—यही लेख अशून्य करने को होगा। इसकी भी मुहर बचा कर हम को दिखलाओ।

भागुरायण—(पेटी खोलकर दिखलाता है)

मलयकेतु—अरे! यह तो वही सब आभारण है जो हमने राक्षस को भेजे थे*। निश्चिय यह चन्द्रगुप्त को लिखा है।

भागुरायण—कुमार! अभी सब संशय मिट जाता है। भासुरक! उसको और मारो।

पुरुष—जो आज्ञा (बाहर जाकर फिर आता है†) आर्य्य! हमने उसकी बहुत मारा है, अब कहता है कि अब हम कुमार से सब कह देगे।

मलयकेतु—अच्छा, ले आओ।


  • दूसरा अङ्क पढ़ने से यहाँ की सब कथा खुल जायगी। चाणक्य

ने चालाकी करके चन्द्रगुप्त से पर्वतेश्वर के आभरण का दान कराया था और अपने ही ब्राह्मणों को दिलवाया था। उन्हीं लोगों ने राक्षस के हाथ वह आभरण बेचे जिसके विषय में कि इस पत्र में लिखा है "हमको सत्यवादी ने तीन अलङ्कार भेजे सो मिले।" जिसमे मलयकेतु को विश्वास हो कि पर्वतेश्वर के आभरण राक्षस ने मोल नहीं लिए किन्तु चन्द्रगुप्त ने उसको भेजे और मलयकेतु ने कचुकी के द्वारा जो आभरण राक्षस को भेजे थे वही इस पेटी में बन्द थे, जिसमें मलयकेतु को यह सन्देह हो कि राक्ष्स इन आभरणी को चन्द्रगुप्त को भेजता है।

†ऐसे अवसर पर नाटक खेलने वालों को उचित है कि बाहर जाकर बहुत जल्द न चले आवे, और वह जिस कार्य के हेतु गये हैं नेपथ्य में उसका अनुकरण करे। जैसा भासुरक को सिद्धार्थक के मारने के हेतु भेजा गया है तो उसको नेपथ्य में मारने का सा कुछ शब्द करके तब फिर आना चाहिए।