मित्रता और शत्रुता अर्थ ही के अनुसार होती है। साधारण लोगो की भाँति इच्छानुसार नहीं होती। उस समय सर्वार्थसिद्धि को राक्षस राजा बनाया चाहता था तब देव पवतेश्वर ही कार्य में कंटक थे तो उस कार्य्य की सिद्धि के हेतु यदि राक्षस ने ऐसा किया तो कुछ दोष नहीं। आप देखिये—
मित्र शत्रु ह्वै जात हैं, शत्रु करहिं अति नेह।
अर्थ-नीति-बस लोग सब, बदलहिं मानहुँ देह॥
इससे राक्षस को ऐसी अवस्था में दोष नहीं देना चाहिये। और जब तक नन्द राज्य न मिले तब तक उस पर प्रकट स्नेह ही रखना नीति सिद्ध है। राज मिलने पर कुमार जो चाहेगे करेंगे।
मलकेतु—मित्र! ऐसा ही होगा। तुमने बहुत ठीक सोचा है। इस समय इसके बध करने से प्रजागण उदास हो जाँयगे और ऐसा होने से जय में भी सन्देह होगा।
(एक मनुष्य आता है)
मनुष्य—कुमार की जय हो। कुमार के कटकद्वार के रक्षाधिकारी दीर्घचक्ष ने निवेदन किया है कि "मुद्रा लिये बिना एक पुरुष कुछ पत्र सहित पकड़ा गया है सो उसको एक बेर आप देख लें।"
भागुरायण—अच्छा उसको ले आओ।
पुरुष—जो आज्ञा।
(जाता है और हाथ बाँधे हुए सिद्धार्थक को लेकर आता है)
सिद्धार्थक—(आप ही आप)