पृष्ठ:मुद्राराक्षस नाटक.djvu/११५

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पञ्चम अङ्क

(हाथ में मोहर, गहने की पेटी और पत्र लेकर सिद्धार्थक नाता है)

सिद्धार्थक---अहाहा!

देसकाल के कलस में, सिंची बुद्धि-जल जौन।
लता-नीति चाणक्य की, बहु फल दैहै तौन॥

अमात्य राक्षस के मोहर का, आर्य चाणक्य का लिखा हुआ यह लेख और मोहर तथा यह आभूषण की पेटिका लेकर मैं पटने जाता हूँ (नेपथ्य की ओर देख कर) अरे? यह क्या क्षपणक आता है? हाय हाय! यह तो बुरा असगुन हुआ। तो मैं सूरज को देख कर इसका दोष छुड़ा लूँ।

(क्षपणक आता है)

क्षपणक---

नमो नमो अर्हम्त को, जो निज बुद्धि प्रताप।
लोकोत्तर की सिद्धि सब, करत हस्तगत आप॥

सिद्धार्थक---भदन्त! प्रणाम!

क्षपणक---उपासक? धर्मलाभ हो (भली भाँति देख कर) आज तो समुद्र पार होने का बड़ा भारी उद्योग करे रक्खा है।

सिद्धार्थक---भदन्त! तुमने कैसे जाना!

क्षपणक---इसमें छिपी कौन बात है? जैसे समुद्र में नाव पर सबके आगे मार्ग दिखाने वाला माँझी रहता है, सेवै ही तेरे हाथ मे यह लखौटा है।