देव नन्द को नहिं सह्यो, जिन भोजन अपमान।
सो निज कृत नृप चन्द्र की, यात न सहिहै जान॥
मलयकेतु---मित्र भागुरायण! चाणक्य के तपोवन जाने वा फिर प्रतिज्ञा करने मे कौन कार्यसिद्धि निकली है?
भागुरायण---कुमार! यह तो कोई कठिन नहीं है, इसका आशय तो स्पष्ट ही है कि चन्द्रगुप्त से जितनी दूर चाणक्य रहैगा उतनी ही कार्यसिद्धि होगी।
शकटदास---अमात्य! आप व्यर्थ सोच न करें, क्योंकि देखे---
सबहि भॉति अधिकार लहि, अभिमानी नृप चन्द।
नहिं सहिहै अपमान अब राजा होइ स्वछन्द॥
तिमि चाणक्यहु पाइ दुख, एक प्रतिज्ञा पूरि।
अब दूजो करिहै न कछु, उद्यम निज मद चूरि॥
राक्षस---ऐसा ही होगा। मित्र शकटदास! जाकर करभक को डेरा इत्यादि दो।
शकटदास---जो आज्ञा।
(करभक को लेकर जाता है)
राक्षस---इस समय कुमार से मिलने की इच्छा है।
मलयकेतु---(आगे बढ़कर) मैं आप ही से मिलने आया हूँ।
राक्षस---(संभ्रम से उठकर) अरे कुमार आप ही आ गये! आइए, इस आसन पर बैठिए।
मलयकेतु---मै बैठता हूँ आप विराजिए।
(दोनों बैठते हैं)
मलयकेतु---इस समय सिर की पीड़ा कैसी है?