कोई न चले (देख कर अानन्द से) महाराज कुमार! आप देखिये। आपकी आज्ञा सुनते ही सब राजा रुक गए---
अति चपल जे रथ चलत ते, सुनि चित्र से तुरतहि भ।
जे खुरन खोदत नभ-पथहि, ते वाजिगन झुक रुकि गए॥
जे रहे धावत ठिठक ते, गज मूक घण्टा सह सधे।
मरजाद तुव नहिं तजहिं नृपगण जलधि से मानहुँ बँधे॥
मलकेतु---अजी जाजले! तुम भी सब लोगों को लेकर जाओ, एक केवल भागुरायण मेरे संग रहे।
कंचुकी---जो आज्ञा (सब को लेकर जाता है)।
मलयकेतु---मित्र भागुरायण! जब मैं यहाँ आता था तो भद्रभट प्रभृति लोगों ने मुझसे निवेदन किया कि "हम राक्षस मन्त्री के द्वारा कुमार के पास नहीं रहा चाहते, कुमार के सेनापति शिखरसेन के द्वारा रहेगे। दुष्ट मन्त्री ही के डर से तो चन्द्रगुप्त को छोड़ कर यहाँ सब बात का सुभीता जान कर कुमार का आश्रय लिया है।" सो उन लोगों की बात का मैंने आशय नहीं समझा *।
भागुरायण---कुमार! यह तो ठीक ही है, क्योकि अपने कल्याण के हुतु सब लोग स्वामी का आश्रय हित और प्रिय के द्वारा करते हैं।
मलयकेतु---मित्र भागुरायण! तो फिर राक्षस मन्त्री तो हम लोगों का परमप्रिय और बड़ा हित है।
- चाणक्य के मन्त्र ही से लोगों ने मलयकेतु से ऐसा कहा था।