हो जाती है तब उसे नियताप्ति कहते हैं। सब के अंत में फल-प्राप्ति होती है, जिसे फलागम कहते हैं।
साहित्यदर्पण के अनुमार दानशील, कृती, सुश्री, रूपवान, युवक, कार्यकुशल, लोकरंजक, तेजस्वी, पंडित और सुशील पुरुष को नायक कहते हैं। नायकं चार प्रकार के होते हैं -धीरोदात्त, धीरोद्धत, धोरललित और धीरप्रशांत । आत्म-श्लाघारहित, क्षमाशील, विनयसम्पन्न , गम्भीर, बलवान तथा स्थिर नायक को धीरोदात्त कहते हैं, जैसे राम, युधिष्ठिर। आत्मश्लाघायुक्त, घमंडी, मायावी तथा प्रचंड नायक धीरोद्धा कहलाते हैं, जैसे भीमसेन । निश्चित, मृदु और नृत्यगानादि-गिय नायक को धीरल लत तथा त्यागी और कृती नायक को धीरप्रशांत कहते हैं ।
विस्तार भय से संक्षा ही में रूरक का कुछ रूप यहाँ दिखला दिया गया है। अवस्थानुरूप अनुकरण या स्वाँग ही अभिनय है, जो चार प्रकार का होता है- प्रॉगिक, वाचिक, श्राहार्य, और सात्विक । अंगों की चेष्टा से आंगिक, वचन-चातुरी से वाचिक, स्वरूप बदलने से आहार्य और भावों के उद्रेक होने से स्वेद, कर आदि द्वारा सात्विक अभिनय होता है। अभिनय की समाप्ति पर सभी पात्रों का निष्क्रांत होना दिखलाना चाहिये । रंगशाला में लम्बी यात्रा, हत्या, युद्ध, स्नान, नाटक या नायिका की मृत्यु श्रादि दृश्य न दिखलाए जाने चाहिएँ।
२-भारतीय नाटकों का संक्षिप्त इतिहास
भारतवर्ष में नाटकों का प्रचार बहुत काल से है। ईसवी सन् के
चार पाँच शताब्दि पइले नाटय-कन्ना इस अवस्था को पहुँच गई थी कि
उस विषय पर अनेक लक्षण ग्रन्थ तैयार हो गए थे । महाकवि कालिदास से
चार पाँच सौ वर्ष पहले के नाटककार मास कवि के अनेक नाटक मिले हैं।
कालिदास का नाटक शकुन्तला संसार के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में से है। कालिदास
के अनन्तर अच्छे नाटककारों में हर्ष हुए, जिनके लिखे हुए रत्नावली,
नागानन्द आदि नाटक हैं। शूद्रक मृच्छकटिक भी उत्तम नाटक है।
भवभूति के महावीर चरित, उत्तररामचरित तथा मालतीमाधव प्रसिद्ध
नाटक हैं । इनके अनन्तर भट्टनारायण ने वेणीसंहार, विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस