पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/८७

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मुद्राराक्षस नाटव चाणक्य-क्रोध से ) दुरात्मा दुष्ट बनिया ! देख, राजकोप क कैसा फल पाता है ! चंदन-(बाँह फैलाकर ) मैं प्रस्तुत हूँ, आर जो चाहिए अर्भ दंड दोजिए। ___ चाणक्य-(क्रोव से ) शारंगर! कालपाशिक, दंडाशिक से मेरी आज्ञा कहो कि अभी इस दुष्ट बनिये को दड दें। नहीं ठहरो, दुर्गपाल और विजयपाल से कहो कि इसके घर का सारा धन ले ४०० लें भार इसको कुटुम्ब समेत पकड़ कर बाँध रख; तब तक मैं चंगुप्त से कहूँ। वह आप ही इसके सर्वस्व और प्राण के हरण के आज्ञा देगा। शिष्य-जो प्राज्ञ महाराज ! सेठ जी! इधर आइए। चंदन-जीजिए महाराज ! यह मैं चला। ( ठकर चलता है; (भापही पाप ) अहा ! मैं धन्य हूँ कि मित्र के हेतु मेरे प्राण जाई हैं! अपने हेतु तो सभी मरते हैं। . [दोनों बाहर जाते हैं। चाणक्य--(हर्ष से ) अब ले लिया है राक्षस को, क्योंकि- . जिमि इन तृन सम प्रान तजि कियो मित्र को त्रान। ४१६ तिमि सोऊ निज मित्र अरु कुल रखिहै दै प्रान ॥ (नेपथ्य में कलकल) चाणक्य-शारंगरव! शिष्य-( आकर) भाज्ञा गुरुनी! चा•-देख तो यह कैसी भीड़ है ? शि०- बाहर जाकर फिर आश्चर्य से आकर ) महाराज शंकटदास को सूली पर से उतारकर सिद्धार्थक लंकर भाग गया। चाo-(प्रारही भाप) बह सिद्धार्थक ! काम का प्रारंभ त किया (प्रकाश ) हैं ! क्या ले गया ? ( क्रोध से ) बेटा ! दौड़कर ४२८ भागुगयण से कहो कि उसको पकड़े। शिo-(बाहर जाकर आता है और विषाद से) गुरुजी! भागुः रायण तो पहले ही से कहीं भाग गया है।