( ५३ ) चाणक्य ने नंदों का नाश किया कितु केवल पुत्र सहित राजा के मारने ही से वह चंद्रगुप्त को राजसिंहासन पर न बैठा सका इससे अपने अंतरंग मित्र जीवसिदि को क्षपणक के वेष में सक्षम के पास छोड़ कर आप राजा लोगों से सहायता लेने की इच्छा से विदेश निकला। अंत में अफगानिस्तान वा उसके उत्तर ओर के निवासी पर्वतक नामक लोभपरतंत्र एक राजा से मिल कर और जीतने के पीछे मगध राज्य का आधा भाग देने के नियम पर उसको पटने पर चढ़ा लाया । पर्वतक के भाई का नाम वैरोधक* और पुत्र का मलयकेतु था। और पाँच म्लेच्छ राजाओं को पर्वतक अपनी सहायता को लाया था। इधर राक्षस मंत्री राजा के मरने से दःखी होकर उसके भाई सर्वार्थसिद्धि को सिहासन पर बैठाकर राजकाज चलाने लगा। चाणक्य ने पर्वतक की सेना लेकर कुसुपपुर चारों ओर से घेर लिया। पन्द्रह दिन तक घोरतर युद्ध चाहा, जिस पर उसने जागकर मित्रता के कारण कुवर को मारा तो नहीं किंतु कान में मूत दिया, जिससे कँवर गूंगा और बहिग हो गया । गजा को बेटे की इस दुर्दशा पर बड़ा सोच हुश्रा और कहा कि वररुचि जीता होता तो इस समय उपाय सोचता । शकटार ने यह अवमर समझ कर राजा से कहा कि वररुचि जीता है और लाकर गजा के सामने खड़ा कर दिया। वररुचि ने कहा-कुँवर ने मित्रद्रोह किया है उसी का यह फल है। यह वृत्तान्त कह कर उसको उपाय से अच्छा किया। राजा ने पूछा-तुमने यह सब वृत्तांत किस तरह जाना ! वररुचि ने कहा-योगरल से, जैसे रानी का तिल । ( ठीक यही कहानी राजा भोज, उसकी रानी भानुमती, और उसके पुत्र और कालिदास की भी प्रसिद्ध है; यह सब कह कर और उदास होकर वररुचि जंगल में चला गया । वररुचि से शकटार ने राजा को मारने को कहा था, किंतु वह धर्मिष्ठ था इससे सम्मत न हुभा । वररुचि के चले जाने पर शकटार ने अवसर गकर चाणक्य द्वारा कृत्या से नंद को मारा। लिखी पुस्तकों में यह नाम वैरोधक, वैरोचक, वैबोधक, विरोध, वैरोध . इत्यादि कई चाल से लिखा है।
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