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द्वितीय संस्करण का अनुवचन


पूज्यपाद भारतेन्दु बा० हरिश्चंद्र जी की रचनाओं में मुद्राराक्षस का स्थान अनूदित होने पर भी बहुत ऊँचा है। वास्तव में तह नाटक मूल रूह में, संस्कृत साहित्य की नाटकावली का और अपने अनुवाद रूप में हिन्दी साहित्य की नाटकावली का, जो अभी बहुत छोटी है अमूल्य मणि है। इसी अनुवाद के विषय में कुछ विद्वानों की यह सम्मति सुन कर कि, यह मूल का अक्षरशः अनुवाद नहीं है तथ अनेक स्थानों पर मूल से भिन्न है, मुझे इसे संस्कृत मूल से मिलान करने की सत्कंठा हुई और इसलिये मैंने मूल के अनेक संस्करय कत्र किए। इन्हें मिलान करने पर ज्ञात हुआ कि इन संस्करणों में अर्थात् इस नाटक की हस्तलिखित प्रतियों के पाठों ही में अनेच स्थानों पर भिन्नता है जिसमें कुछ एक का उल्लेख टिप्पणी में आ गया है। दरिद्वराज ने भी अपनी टीका में कई स्थानों पर पाठांतर का उल्लेख किया है। मिस्टर तैलंग ने जिन नौ हस्तलिखित प्रतियं का मिलान किया है उन्हें उन्होंने दो विभागों में बाँटा है। एक विभाग में चार प्रतियाँ हैं। इनमें एक 'बी' द्वारा संकेतित वह प्रति है जो बंगाल में पं. तारानाथ तर्कवाचस्पति की टीका सहित छ है और दो की प्रतिलिपि काशी में हुई है। इन प्रतियों में'बी'के । पाठ से हिंदी अनुवाद का पाठ अधिक मिलता है। इसका ए सदाहरण दे दिया जाता है। सातवें अंक के पू० ७० में पहले सेना पति' शब्द था और यही पाठ मूल के इसी विभाग के 'बी' मा प्रतियों में भी.था। पर अन्य प्रतियों में शूलायतनः या शूलपाते प. थे और चांडालों के लिए येही विशेषण उपयुक्त थे। इस प्रकार मृ तथा अनुवाद में इस कारण से भिन्नता आ गई है। कुछ अन स्थानों पर भिन्नता मिलने का दूसरा कारण छपाई आदि भी है इसके दो तीन उदहरण भी दे दिये जाते हैं। द्वितीय अंक पं० ३ में 'बिच' के स्थान पर 'बन' था। तृतीय अंक. १२५ में 'बटुन'