पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/५२

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और महा प्रतिभासंपन्न थे । केवल भेद इतना था कि राक्षस धीर और गंभीर था, उसके विरुद्ध शकटार अत्यंत उद्धन था । यहाँ तक कि अपने प्राचीन- पने के अभिमान से कभी कभी यह राजा पर भी अपना प्रभुत्व जमाना चाहता था। महानद भी अत्यत उग्र असहनशील और ' क्रोधी था, जिसका परिणाम यह हुआ कि महानंद ने अंत को शकटार को क्रधांध होकर बड़े निविड़ बदीखाने में कैद किया और सपरिवार उसके भोजन को केवल दो सेर सत्तू देता थ*। शकटार ने बहुत दिनतक महामात्य का अधिकार भोगा था इससे यह रुचे वही सुदर है।" इसपर प्रसन्न होकर राक्षस ने उससे मित्रता की और कहा कि हम सब बात में तुम्हारी सहायता करेंगे और फिर सदा राजकाज में ध्यान में प्रत्यक्ष होकर रावस वररुचि को सहायता करता।

  • वृहत्कथा में यह कहानी और ही चाल पर लिखी है। वररुचि.

व्याडि और इंद्रदत्त तीनों को गुणदक्षिणा देने के हेतु करोड़ों रुपये के सोने की आवश्यकता हुई। तब इन लोगों ने सलाह किया कि नंद ( सत्यनंद) राजा के पास चलकर उससे सोनाले। उन दिनो राजा का डेरा श्रयं ध्या में था ! ये तीनों ब्रह्मण वहाँ गए, किंतु संयोग से इन्हीं दिनों राजा मर गया। तब आपस में सलाह करके इंद्रदत्त योगबल से अपना शरीर छोड़कर राजा के शरीर में चला गया, जिससे राजा फिर जी उठा । तभी से उसका नाम योगानंद हुश्रा योगानंद ने वररुचि को करोड़ रुपये देने की श्राशा किया। शकटार बड़ा बुद्धिमान था; उसने सोचा कि राजा का मरकर जीना और एकबारगी एक अपरिचित को करोड़ रुपया देना. इस में हो न हो कोई भेद है। ऐसा न हो कि अपना काम करके फिर राजा का शरीर छोड़कर यह चला जाय । यह सोचकर शकटार ने राज्यभर में जितने मुरदे मिले उनको जलवा दिया, इसीमें इंद्रदत्त का भी शरीर जल गया। जब व्याड़ि ने यह वृत्तांत योगानद से कहा तो वह यह सुनकर पहले तो दुःखी हुआ पर फिर वररुचि को अपना मंत्री बनाया। अंत में शकटार उग्रता से संतप्त होकर उसको अंधे कूएँ में कैद किया । वृहत्कथा में शकटार के स्थान पर शकटाल नाम लिखा है।