अवतिधर्म के सिवा दंतिवर्मा और रंतिवर्मा भी पाठ मिलता है, जिसमें प्रथम नाम के तीन राजे दक्षिण में हुए । दो राष्ट्रकूट और एक पल्लव । इनका काज्ञ सन् ६०० ई० सन् ७५० और ७७६.८३० ई० है । पर नाटककार ही के अनुसार म्लेच्छदेशसविज्ञ यः अर्यावर्तस्तत: परम्' है। उसने अर्यावर्त का होने से उससे भिन्न सभी को म्लेच्छ कहा है और ऐसी हालत में उसके अश्रयदाता को आर्यावर्त ही का एक प्रतापी नरेश होना चाहिर । जिविकारों के कारण चंद्रगुप्त के स्थान पर इन अन्य नाम का लिखा जाना प्राधिक मंगत ज्ञान होता है। उक्त श्लोक में चंद्रगुप्त के दो विशेषण पार्थिवः और श्रीमद धुमृत्यः दिए गए हैं। दूसरे का अर्थ टुडिराज ने श्रीमंतः बंधवो भृत्याश्च यस्य सः' अर्थ जगाया है पर विणु भगवान से समानता दिए जाने वाले राजा के विषय में यह छोटी बात लिखना कि उसके नौकर भी थे और हाथी घोड़े भी थे इत्यादि विशाखदत्त से राजनीति कुशल साहित्यिक को शोमा नहीं देता। पर यह विशेषण सार्थक है । सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य अपने बड़े भाई सम्राट रामगुप्त के अत्यंत अनुयायी थे और उन्हीं के लिए यह पद आया है। कवि नाटककार इस पद में विष्णु तथा चंद्रगुप्त में समानता बाला रहा है और चंद्रगुप्त नाम से मैर्य सम्राट तथा अपने श्राश्रयदाता दोनों का स्मरण कर रश है। उसका भाव यह है कि जिस प्रकार विष्णु भगवान ने वाराह अवतार लेकर डूबी हुई पृथ्वी की हिरण्याक्ष से रक्षाकर अपने दंतान पर धारण किया था उसी प्रकार चंद्रगुप्त भी ग्लेच्छो से उसको अचार अब अपने दोनों हाथों के बीच उसे श्राश्रय देकर रियाल तक अन् रक्षा करे। चंद्रगुप्त मौर्य ने ग्रीक तथा पर्वतक शादि म्हन्छों से संतप्त हुई पृथ्वी की रक्षा की थी और उन म्लेच्छों को भारत से दूर किया था। राक्षस के मुख से कहलाने से यह मैर्य सम्राट का द्योतक हुआ और साथ ही कषि अपने श्राश्रयदाता चंद्रगुप्त विक्रम पर भी इने घटाता है क्योंकि उक्त प्रतापी सम्राट ने शक का सनून लाश कर भारत से उनका नाम मिटा दिया था। शक म्लेच्छ थे और बहुत दिनों से उस जाति ने भारत के पश्चिम तर भाग पर अपना राज्य मा करता था। .. -निर्माण काल के निरूपण का एक अन्य मार्ग पाटलिपुत्र नगर की
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