पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/४४

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अपने आश्रयदाता की कीर्ति बढ़ाने के लिये ही लिखा गया होगा। पर यदि अवंतिवर्मा को काश्मीर का राजा मानिए तो यह कठिनाई उत्पन्न होती है कि कवि काश्मीर राज्य के यशः सौरभ वी म्लेच्छ काश्मीर-नरेश पुष्कराक्ष के रूप में मलयकेतु के अधीन तथा उसी के द्वारा उसकी अस्मृत्यु कराकर मलिन न करता । इस विचार से काश्मीर के अवंतिवर्मा का उल्लेख श्लोक में होना अग्राह्य है। अब दूसरे अवंतिवर्मा के संबंध में विचार करना चाहिए । जस्टिस तैलग ने तथा उन्हीं के अधार पर विधुभूपण गोस्वामी ने अवंतिवर्मा को पश्चिमीय मगध अर्थात् विहार का राजा तथा हर्षवर्धन को कन्नौज का राजा मान लिया है। परंतु यह ठीक नहीं है। थानेश्वर के बैसवंशी राजा प्रभाकरवद्धन को तीन संतति थी-राज्यवन, हर्षबद्धन और राज्यश्री। इसी राज्यश्री से कन्नौज के राजा अवंतिवर्मा के पुत्र ग्रहवर्मा का विवाह हुआ था। अवंतिवर्मा के सिक्कों पर गु० सं० २५० (वि० सं० ६१२ ) मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि ये गुप्त वंश के अधीन थे। *माजवराज देवगुप्त ने कन्नौज पर चढाई कर ग्रहवर्मा को मार डाला और इसके अनंतर राज्यवद्धन ने मालव- नरेश से इस चढ़ई का बदला लिया। राज्यवर्धन के मारे जाने पर हर्षवर्धन ने दिग्विजय कर कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। विशाखदत्त का इन अवं तेवर्मा के समय में नाटक रचना संभव हो सकता है। इन्होंने हगों को पराजित करने में गुप्तों की तथा अन्य मित्र राजाओं की सहायता की होगी, जिम कारण इनके नाम का उस श्लोक में चंद्रगुप्त के स्थान पर प्रयोग हुश्रा होगा। उस श्लोक में म्लेच्छ शब्द इन्हीं हूणों के लिए श्राया कहा जायगा। इन विचारों से कवि विशाखदत्त का समय ईसवी छठी शताब्दि का उत्तराद्ध हो सकता है। ___ पर यह विचारणीय है कि नाटक के एक पात्र राक्षस के मुख से किसी ऐसे राजा के विषय में 'चिरमवतुमही' कहलाना, जो उससे दस ग्यारह शताब्दि बाद होगा, वहाँ तक नाटककार के लिये उचित था। यदि ऐसा ही होता तो वह किसी देवता को लाकर कहना देता पर नाटककार को उसकी श्रावश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि गवस तथा नाटककार दोनों के साश्रयदाताओं का एक ही नाम था और दोनों के लिए वे सब विशेषण उचित थे।

  • प्राचीन राजवश भाग २, पृ० ३३४-५ और ३७५