पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/४२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पर्यायवाची नहीं हो सकता पर उसका अर्थ इस व्यारक रूप में अवश्य लिया जाता था कि मनातन धर्म मानने वाले भारतीयों से इतर सभी अन्य जाति उमः विशेषण से विभूषित की जाती थीं। स्कंदगुप्त के जूनागढ़ के लेख से पिवोऽप मूलभग्नदा निर्वचना म्लेच्देशेषु' उल्लेख कर मि. अनानी ने दिखलाया भी है कि उस म्लेच्छ से हूण का भी तात्पर्य लिया जाता है। चंद्रगुप्त द्वितीय के समय हूणों की भारत पर न ऐमी चढ़ाई हुई थी और न वे ऐसे प्रबल हो पाए थे कि उनको परास्त करने के कारण चद्रगुप्त को बाराह अवतार की उपमा देनी सुसंगत होती । नृसिंह बालादिस्य तथा यशोधर्मन के समय वस्तुतः हूण परास्त किए गए थे और उनका प्रबल राज्य छिन्न भिन्न हुआ था। यह सत्र ऐतिहासिक तक वितर्क केवल 'अधुना' शब्द पर उठाया गया था, जिसका अर्थ 'मस्टर जायसवाल ने वर्तमान लिया था। नाटककार ने भरत वाक्य के पहले चंद्रगुप्त से निम्नलिखित श्लोक कहलाया है- राक्षसेन स मैत्री राज्ये वारिता वयम् । नंदाश्चोन्मूलिताः सवे' किं कर्तव्यमतः प्रियम् ॥ इस पर राक्षस मंत्री के कहने का तात्पर्य है कि 'अब राजा चंद्रगुप्त राज्य करें। इस प्रकार धुना केवन भूत कालिका क्रियाओं के अनंतर अज' का हो अर्थ देता है। ग्रंथनिर्माण का समय कुछ भी हो पर चंद्रगुप्त से भरतवाक्य में मौ: चंदगुप्त ।। का भास होता है। नाटककार विशाखदत्त ने अपने आश्रयदाता का नाटक में कहीं उल्लेख नहीं किया है और यदि उस श्राश्रयदाता का नाम भी चंद्रगुप्त हो और वह भी मर्य-सम्राट् ही सा प्रारी हो रहा हो, तो उसका भी उल्लेख इसमें मान लेना समीचीन हो सकता है। मस्टर अंतानी ने यशोधर्मन के मंदसोर स्तंभलेख के श्लोकों से तथा भरतवाक्य और एक अन्य श्लोक ( अंक ३ पं० १६४-७ ) में समानता दिखाई है। उसे भी यहाँ उद्धत किया जाता है-भरतवाक्य तथा लेख के जिस दूसरे अंतिम श्लोक की दो पंक्तियों में समानता दिखलाई है, वह यों है-