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नदी के किनारे पहुँचे।यहाँ हणों से युद्ध हुआ। इसके अनंतर काँबोजों से युद्ध हुआ और तब वह हिमालय की पार्वत्य जातियों तक पहुँचा। [सग ४ श्लोक ६०.६६ ] नाटककार ने भी कांबोज को एक जाति ही लिखा है तथा उसे भारत की पश्चिमोत्तर देशय जातियों के नामों में गिनाया है। ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारम में कांबोजों ने बंगाल के पालवंशी राजा को परास्त कर राज्य स्थापित किया, पर सं० १०४० के लगभग महीपाल ने इस जाति को निकालकर फिर से अधिकार कर लिया। फाहियान के यात्राविवरण में इस जाति का उल्लेख नहीं है। पूर्वोक्त कथनों से ज्ञात होता है कि यह जाति विक्रम संवत् की प्रारंभिक शताब्दियों में पश्चिमोत्तर पावत्य प्रांतों में ही बसी थी पर वहाँ से यात्रा करती दसवीं शताब्दी में तिब्बत भादि होती बंगाल के उत्तरी प्रांत तक पहुंच गई।

किरात-एक प्राचीन जंगली जाति विशेष । इसका उल्लेख महाभारत आदि पर्व', सग १७७ श्लोक ३६], भारवि कृत किरातार्जुनीय तथा घुवंश [ सर्ग ४ श्लोक ७६ ] में है। किरातो का देश हिमालय के पूर्व का पार्वत्य प्रांत था, जिसके अंतर्गत श्राधुनिक नेपाल का कुछ पूर्वीय अंश, सिकिम तथा भूटान माना जाता है।

कुलूट-जालंवर दोआब के पश्चिम और उत्तर का एक प्रांत, जो प्रतलज के दाये तट पर है और जिसे वर्तमान समय में कुलू कहते हैं। इस स्थान का उल्लेख कादंबरी तथा वराहमिहिर में भी है । ह्य एनत्साँग ने इसका जालंधर से मथुरा तथा थानेश्वर के माग पर होना लिखा है। वृहत् संहिता । [ सं० १४ श्लोक २२ ] में पश्चिमोत्तर की जातियों में मद्र, अस्मक, कुलूत, चड्डा आदि का उल्लेख है। उसी के २६ वें श्लोक में पूर्वोत्तर की जातियों के साथ भी कुलूतों का वर्णन है।

खस-यह भी एक पार्वत्य जाति है। राजशेखर ने काममीमांसा में ज्योत्यमुक्ता के उदाहरण में जो श्लोक उद्धृत किया है उसमें खसों का नेवासस्थान हिमालय दिया है। परतु बस्टिस तैलंग तथा उन्हीं के अनुसार को विधुभूषण गोस्वामी ने खसों का निवासस्थान गारों तथा खसिया हानियां लिखा है, जो आसाम प्रति में ब्रह्मपुत्र के बाएँ तट की ओर हैं। हसें मान कर जस्टिस तैलंग ने लिखा है कि इसके अनुसार 'खश' के स्थान