मुद्राराक्षस नाम दुभानही वीर-तह जिमि नसत' के विधानुबिंब भाव से निदर्शन अलंकार है। १८२८-गर्वित शत्रु के दर्प को चूर्ण करने वाले भी पौरुष के माहात्म्य को देखिए कि अनवरत लगाम कसी होने तथ कभी पीठ खाली न रहने से कृश हुए घोड़े और नित्य सन्नद्धमा से रखसज्जा के कसे.रहने से जिनकी पीठ फूल उठी है ऐसे हाथ खेच्छानुसार स्नान, खान, पान पौर शयन के सुख से वंचित हैं। यह मूब का अर्थ है, अनुवाद छप्पय में है और भाव कुछ मिर है।अर्थ- घोड़े की लगाम कसे रहते हैं और पीठ से नहीं उतरते। खान, पान, स्नान भादि सुख साज छोड़कर भी मुख नहीं मोड़ते ससे माखों में नींद नहीं है और दिन रात मन में भ्रम रहने समे वीर सशंकित रहते है । राजा के हाथियों को देखिए कि सर्व पन पर हौदे कसे हुए हैं । शत्रु के गर्व को दमन करने वाले अप' अत्यंत प्रबल पौरुष को (जिनके वे उदाहरण हैं) देखिए। चाणक्य राक्षस के विक्रम के प्रभाव से सर्वदा सेना का युद्धार्थ सबद्ध रहते रहते प्रांत होना तथा सशंकित रहना सुनाकर उसक, बोम्यम दिखलाता है। हाथी, घोड़े वीर आदि के एक धर्म-संबंध से तुल्ययोगिक अलंकार है। ... १६१-१४-मूल श्लोक का अर्थ- - नंद के स्नेह का अंश हृदय को आकृष्ट करता है पर हम उनय शत्रु के सेवक हुए। जिन वृक्षों को स्वयं जल से सिक्त कर बन किया उन्हें कैसे काटा जाय! मित्र की शरीर-रक्षा के लिए शन लेना हमारा कर्तव्य है। भाग्य की कार्य-गति विचार नहीं पाती। श्लोक का भाव अनुवाद में पूर्णतया मा गया है केवल तीम अंक के भाव के प्रकटीकरण में कुछ भिन्नता है। मूल में शस्त्र-प्रा करना कर्तव्य बतलारा गया है पर अनुवाद में दिखाया गया
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