पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२५०

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१८८ मुद्राराक्षस नाम नायाऽहमस्मीति स्वनाम परिकीर्तयेत् ॥' [ मनु० अध्याय : कोक १२२] १२५-श्वपाक-चांडाल १३१४-'भद्रभटादि के लिए अंक ३५० २७० देखिए। 'लेख वही पत्र है जो शकटदास से लिखवाया गया था, 'भदंत' वह बौद्ध संन्यासी जीवसिद्धि है, 'भषण' वे तीन थे जिन्हें चाणक्य चंद्रगुप्त से अपने ब्राह्मणों को दिलवाया था और उन्हीं के द्वार राक्षस के हाथ बेंचवाया था तथा 'नट भारत भेख' से वह पुरुष इंगित है जिसने निर्जन वाटिका में नटवत् फाँसी लगाकर प्राण दे का स्वाँग रचा था। दोनों दोहों का अर्थ स्पष्ट है। कार्य का कारण दिए जाने । काव्यलिंग और प्रथम तीन पंक्तियों के विशेष वाक्यों से अंतिम सामान्य वाक्य के साधर्म्य से अर्थावरन्यास अलंकार हुए । दर्पणो लक्षणानुसार मूल कारण तथा मुखसंधि आदि के कथन संहित हो से निर्वहण संधि हुई। १९३-चंद्रगुप्त के लज्जित होने का कारण यही था कि वह अप विक्रम का गुरु को कुछ परिचय न दे सका और उन्होंने उसके मा के सभी संकटों को दूर कर दिया। ' १४५-६-मल श्लोक का अर्थ

. तीरों का समूह फनयोग की प्राप्ति होने से ( कार्य सिद्धि से

लोहे के फलों के सम्बन्ध से ) निज कार्य से लक्ष्यच्युत (अयोग्य होकर निज तूणीर में नीचे मुख कर शयन कर रहा है जो (मुने प्रीतिकर नहीं है। अनुवाद का अर्थ- मेरे बाणों का समूह काम के न होने से ( कार्यहीन निकम्मा) लजित हो शोक से नीचे मुख करके सर्वदा तूणीर में से रहता है। १२७-८-यदि हम प्रत्यंचा उतार कर सोने हैं (अध राजचिता से विमुख हैं) तो भी संसार विजय करने में सर