पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२४९

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शष्ट ख १८७ और अन्य तीन में प्रसंभवत्त का प्रतिबिंब मात्र है। इस प्रकार कई तिबिंब होने से निदर्शना को माला सी बन गई है। इन दोनों से चाणक्य राक्षम की दुर्धर्षता दिखलाता है पर उसे बिपाश करने पर यह कहने से गर्वोक्ति की ध्वनि निम्नती है। प्रस्तुत असंभव बातों से प्रस्तुत राक्षप्त यमन के सारूप्य निबंधना अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है। अशंभव बातों की प्रधानता मी अतिशयोक्ति है। ११४५ -मल का भावार्थ- । जिस प्रकार समुद्र रत्नों का भाकर है उसी प्रकार ये सब शाखौं आकर हैं । द्वेष-बुद्धि से हम इनके गुण से प्रसन्न नहीं हुए। में अनुवाद का अर्थ स्पष्ट है और भाव भी आ गया है पर प्रस्टी करण में भिन्नता है । मूल के 'द्वेष-बुद्धि के कारण गुण पर प्रसन्न न होने से अनुवाद के 'द्वेषबद्धि रखते हुए (शत्रु मानते हुए ) मी शुण पर प्रसन्न होने में अधिक सहृदयता मलकती है। दोनों ही राक्षस को गुणग्राहकता प्रकट है। सागर से चाणक्य की उपमा दी गई है और चाणक्य में गुणों की खान का रूपक बाँधा गया है। ११८-४-जिसने बहुत क्लेश के साथ रात्रि को जाग कर सर्वदा सोचते हुए (उन उपार्यों को जिन्होंने ) मेरी बुद्धि तथा चंद्रगुप्त की सेना को थका दिया था। अथवा -जिसने मेरी बुद्धि और चंद्रगुप्त की सेना को थका दिया क्योंकि हम सब को) रात्रि को जगाकर बहुत क्लेश के साथ सर्वदा (राम के उपायों से बचने के लिए) सोच विचार में (सेनापक्ष में सतर्क) रहना पड़ता था। .. मति और सेना दोनों का एक धर्म-संबन्ध होने से तुस्ययोगिता अलंकार हुआ। . १२१-बड़ों के अभिवादन के समय नामोल्लेख करना । कहा गया है-अमिवादात् परो विप्रो ज्यायांसमभिवादवन् ।