पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२४७

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रिशिष्ट १८५. तिष्ठित शब्द का प्रयोग अनुचित समम अंतिम दो पाठ ठ क मान' र घातकों रख दिया गया। ___७२-७४-जिसने अपने स्वामी के वंश का शत्र ( के कुल के) जमान नाश अपनी आँखों देखा, जो अपने मित्रों के दुख में भी भारी उत्सव के समान कातर नहीं हुआ) निर्लज्ज हो कर जीवित हा और जिसकी मात्मा तुम लोगों से हर प्रकार से हार कर भी अर्थात् अपमान का पात्र होने पर भी) तुम लोगों को मारने के लेए प्रिय वस्तु के समान रक्षित रही (नहीं निकली) वही राक्ष मैं हूँ। उसके गले में यह जमफाँप जो यमलोक जाने का मार्ग स्वरूप है)डालो। कोष्ठकांतर्गत अंश मल में अधिक हैं। राक्षस का अपने प्रति उपालंभ है कि स्वामिवंश के नष्ट होने पर और कोलूतादि मित्रों के नष्ट होने पर भी वह जीवित रहा। शत्रु-समान उपमा है। जमफाँस- मूल शब्द वध्यत्रम है। शूली में डोरी की कोई आव- श्यकता नहीं होती। वध्यवेश में लाल फूलों की माला, लाल वस: आदि होते हैं जिसे धारण करने वाला मारा जाता है। इससे जमाँस से यहाँ लाल फूलों की माला से वात्यय है। _____८२-६-दुर्जनों के अनुकूल कुकाल कलियुग में जिस यशस्वी ने अपने प्राणपण से दूसरे की रक्षा कर शिवि के यश को छोटा कर दिया, जिस निर्दोष स्वभाव वाले ने अपने सुचरित्र से बौद्धों को भी तिरस्कृत कर दिया और जो (चंदनदास) पूजनीय होने पर भी जिसके ( राक्षस) लिए तुम से वध्य हुआ सो मैं उपस्थित हूँ। यह मल श्लोक का अनुवाद हुआ। अनुवाद तीनों दोहों में ही है इससे कुछ विशेष बातें आ गई हैं। तीनों दोहों का अर्थ नीचे दिया जाता है। १. जिसने कलियुग में मित्र के लिए तृण के समान प्राण छोड़