१७० मुद्राराक्षस नाटक ___३६१-४-मुदा उसी के हाथ में है, सिद्धार्थक भी उसी का पमित्र है और यह पत्र उसी के हाथ का लिखा है । यह सिद्ध करने के लिए यह चित्र (उसी का दसरा लेख) साधन रूप मौजा है। ( इससे यही ज्ञात होता है कि वो पुत्राति के प्राण-रक्षार्थ ) स्वधर्म को भूल कर और शत्रु से मिल कर भेद करने के लिये निश्चय ही स्वामिभक्ति से हीन शकटदास ने यह दुष्ट कर्म किया है। ____कोष्ठक के अंश मूल में अधिक हैं। कारण-कार्य-संबंध से काव्य लिंग अलंकार हुआ। ३६६-ये आभरण भी शकटदास द्वारा क्रय किए गए थे। ( देखिए अं० २५० ४४६-५२) ३७४-५-हे वंश के अलंकार तथा अलंकारों पर प्रेम रखने वाले आपके शरीर पर ये सब भूषण थे अर्थात् शोभा देते थे। आपके मुख के पास ये गहने इस प्रकार शोभित होते थे जैसे चंद्र. (मुख) के साथ तारे (भूषण)। मूल में चंद्र का शरद विशेषण अधिक है। उपमालंकार है। " ३८३-४-मूल के अनुसार अर्थ- अधिक लाभ का लोभ करने वाले विक्रेता चंद्रगुप्त के हाथ आपने कर हृदय होकर हमें इसके मूल्य में दे दिया। अनुवाद में इस क्रय विक्रय के क्रम को उलट दिया है अर्थात्- तुमने (राक्षस ने ) कर होकर तथा प्रीति को छोड़कर अधिक लाम के लोभ से (अर्थात् भूषणों का अधिक मूल्य कल्पित कर) इन गहनों के बदले हमारे शरीर को बेच दिया। न्यूनाधिक क्रयविक्रय से विषम परिवृत्ति अलंकार हुआ। ३.६९-जब हमारी मुद्रा लगी है तब यह कैसे कह सकते है कि यह लेख मेरा नहीं है। शकटदास कभी सौहाद्र छोड़ देगा ऐसा भी विश्वास नहीं होता । चंद्रगुप्त गहना बेचेगा, ऐसी ( असंभव) बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा इससे मौन ही रहना उत्तम है। प्रत्युत्तर देने से बची बचाई प्रतिष्ठा भी जाती रहेगी। कारण देने से काव्य लिंग अलंकार हुमा।
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