पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२२८

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१६.. मुद्राराक्षस नाटक चंद्र परिहारार्थ दिया गया है। प्रकृत पक्ष में यह भाव निकलना कि सूर अर्थात् वीर राक्षस के अस्त होने तथा चंद्रगुप्त के उदय होने और बुध अर्थात् चाणक्य के लग्न ( फंदे) में पड़ने से केतु अर्थात् मलयकेतु का उदित होने पर भी अस्त होना अनिवार्य है। २६१.२-तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्रंतु चतुर्गुणम् । सहस्रेणाधिकः सूर्य चंद्रो लक्षगुणाधिकाः॥ इस ज्योतिष के श्लोक का पूर्वार्द्ध कह कर चंद्र का बल प्रदर्शित करता है। दोहे का अर्थ है कि तिथि के शुभाशुभ की शक्ति एक है तो नक्षत्र को उसको चतुर्गुण है और लग्न की चौंसठ गुणा है, ऐसा शास्त्र कहता है। २९३-९४-निकृष्ट लग्न भी कर ग्रह के योग को छोड़ देने से सुलग्न हो जाता है तथा 'यत्र चंद्रो बलान्वितः' के अनुसार चंद्र- बल देखकर जाने से बहुत लाभ होता है। ___इससे यह भाव निकलता है कि क्रूर ग्रह केतु (मलयकेतु ) को छोड़ देने से तुम्हारा भला है तथा चंद्र ( चंद्रगुप्त ) का बल देख- कर तुम्हें लाभ ( मौर्य का मत्रित्व) होगा। ... ३०.-मूल में 'आप ही आप नहीं है। • ३०७-१०-सूर्योदय के अनंतर क्षणिक अनुराग दिखलाने को ये बगीचे के वृक्ष अपनी छाया द्वारा आगे आगे दौड़ते थे पर जब सूर्य अस्ताचल की ओर चला तब वे ही वृक्ष अपनी छाया द्वारा पीछे की मोर दूर भागने लगे। नौकरों की यही चाल है कि प्रायः वे, ऐश्वर्यभ्रष्ट स्वामियों को छोड़ देते हैं। मूल श्लोक का यही भाव है पर अनुवाद का भाव उससे कुछ विशेष अच्छा है। अर्थ यो है- ___जब सूर्य उदय हुआ तब वृक्षों की छाया दूर थी पर ज्यों ज्यों सूर्य अपने पूर्ण ऐश्वर्य की ओर अग्रसर होता गया त्यों त्यों वे छाया पास आती गई और अत में मध्याह्नकाल के समय उसके विल्कुल सन्निकट अर्थात् पैरों के तले पहुँच गई पर ज्यों हो वह ऐश्वयं भ्रष्ट