१५४ पर्वतक रण में मारा गया था पर ऐसा नहीं हुआ था। तात्पर्य केवल यही है कि मृत्यु के अनंतर ही वह पिता के पास पहुँच सकता था। इस दोहे से मलय केतु का स्थिर संकल्प ज्ञात होता है। दो कार्यों में से एक निश्चित करने से विकल्पालंकार हुन्मा। ६४-इससे वे साथ आने का कष्ट न उठावें' ऐसा मूल के अनुसार होना चाहिए। ६५-भूल में 'प्राकाशे' है पर उससे नेपथ्य की ओर देखकर कहना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि वे अनुगमन कर रहे थे। ६६.७२-मूत का अर्थ इस प्रकार है- काँटेदार लगाम के अधिक खींचने से अत्यंत टेढ़ी और ऊँर्च शार्दन किए हुए अपने खुरों से मानों आकाश को विदीर्ण करने वाले घोड़ों को कुछ राजों ने रोक लिया है और कुछ ने हाथियों के रोक लिया, जिससे उनके घंटे अब नहीं बजते । हे देव ! समुद्र समान ये राजे भी मर्यादा नहीं उल्लंघन करते। अनुवाद सवैया छद में है और इस छद के श्लोक से बड़े हो के कारण रथों का भी समावेश किया गया है। अंतिम तीन पंक्तिर में मल का भाव भा गया है। वेग से जाते घोड़े को एकाएक जो से रोकने पर वह चूतड़ के बल बैठ जाता है और भागे के 4 अधर में उठ जाते हैं मानों वह आकाश-मार्ग को खरों से खोद है। अश्व और हाथी में स्वभावोक्ति, आकाशमार्ग को मानों खोद उत्प्रेक्षा तथा समुद्र की समानता उपमा है। ७६-७७-चाणक्य की शिक्षा के अनुसार ही इन लोगों ने र कहा था । मून में है कि जब इन आए हुए भद्रभट प्रभृति ने मुम कहा था' पर अनुवाद में है कि 'जब मैं यहाँ आता था तो भ्रद्रा प्रभृति ने मुझसे निवेदन किया। भागुरायण भी चाणक्य का मे हुमा है इसलिए वह भी ऐसी ही बातें करेगा जिसमें मलयकेतु राक्षस का विगाड़ हो । अर्थात् राक्षस ही को भेदनीति चाणक्य द्व चलाई जा रही है।
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