शिष्ट ख १४३ पर इसका प्रकाश रहता है ) इसलिए वह सूर्य से बढ़कर है। अनुवाद में वह भाव नहीं पाया और सूर्योदय पर स्वभावत: चंद्रास्त का होना उपमा रूप में दिया गया है। पर इस चंद्रास्त का दिखाना अनुचित हुभा, क्योंकि उससे चंद्रगुप्त के अस्त की श्री ध्वनि निकलती है। १५३-१६०-मल के अनुसार 'धीरे धीरे बढ़ाया गया है। ... १६५-१६६-(राजधर्म से ) हीन नंद से च्युत और चंद्रगुप्त से संशोभित इस राजसिहासन को, जो राजा के उपयुक्त है, देखकर मुझे बड़ा ही संतोष हो रहा है। मूल में, गुणा ममते' (अर्थात् मेरी ही कृति से ऐसा हुआ है ) अधिक है। सिहाहन के योग्य बतलाकर प्रशंसा करने स सम नामक अलंकार हुमा। 'सम योग्यतया योगी यदि संभावित: कचित् काव्य. प्रकाश का लक्षण है । संतोष के दो कारण होने से समुच्चय अलंकार १७१-१७४-मुर धुनी अर्थात् गंगा जी के जलकण से शीतल होने बाले हिमालय के शृग जहाँ तक हैं और दक्षिण की ओर जहाँ तक बहु वर्ण क रत्नों से जित समुद्र बहते हैं, वहाँ तक के ( इन दो सीमाओं क बीच के ) सभी राजा तुम्हारे अातंक से आकर तुम्हें ifer नवावें, तो हम उनके मुकुटों की मणिों के संपर्क से रंगे हुए तुम्हारे पैरों को देखकर सुख पावें। १८०-मूल के अनुसार 'कमचारी' शब्द बढ़ाया गया है। १६x-चंद्रगुप्त गुरु की आज्ञा पाने पर भी उनकी प्रतिष्ठा नहीं कर रहे थे, इससे चाणक्य ने रुखाई से बातचीत कर अब क्रोध डमाड़ने की चेष्टा की।
- . २०१-वैतालिक-वि.वध प्रकार के ताल-लय से स्तुति-पाठ
करने वाले को वैतालिक कहते हैं। २०३ २:६-मल श्लोक जिसका कि यह पद अनुवाद है उसमें भाव स्पष्टतया व्यक्त नहीं है। अनुवाद में वह स्पष्ट हो गया है। शरद ऋतु और महादेवजी में सादृश्य दिखलाया गया है।