पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/२०९

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मुद्राराक्षस नाटक पारस्परिक स्पर्धा दिखलाते हुए निश्शंक स्त्रियों के साथ इस उत्सव में योग नहीं दे रहे हैं। स्वाभावोक्ति अलंकार है। अनुवाद स्वतंत्र है। पहले दोहे में नगर की सजावट का न होना और दूसरे में नागरिकों का उत्सव में योग न देना दिखलाया है । अर्थ पष्ट है। ८०- मूल में दर्शकों के प्रति अति रमणीय दृश्य को' अधिक है। ८३-मूल में चंद्रगुप्त ने यह बात प्रतीहारी शोणोत्तरा से कहा था और उसीने सिंहासन दिखलाया था। अनुवाद में कचुकी द्वारा ही यह कार्य दिखलाया गया है। कोष्ठक के भीतर का अंश मन में नहीं है और उस स्थान पर शोणोत्तरा नाम दिया है। मूल में बैहीनर के साथ आदर से बातचीत करना दिखलाया गया है पर अनुवाद में वह ध्वनि नहीं आई है। ८५-इस पंक्ति के अनंतर कोष्ठक में जो लिखा है उससे मल; में 'कोपानुद्धिां चितां नाटयन्' अधिक है अर्थात् चिंता और कोप. प्रदर्शित करता हुआ। .. ६२-६७-ये तीन दोहे मूल से अधिक हैं। चाणक्य की पूर्व कृति का उल्लख मात्र है । अर्थ स्पष्ट है। १००.१.३-मूल और अनुवाद का भाव एक होने पर भी उसके प्रकट करने में कुछ भिन्नता है, जो अलग-अलग अर्थों के दिए जाने से ज्ञात हो जायगी। मूल का भावार्थ यों है- .. कृतानिष्ट सर्प के सामान अपमानित चाणक्य ने जिस प्रकार नगर से बाहर निकलकर नंदों का नाश किया तथा मौर्य चद्रगुप्त को रामा बनाया, उसी प्रकार मैं भी चंद्रगुप्त की राज्य लक्ष्मी का अपहरण करूँगा ऐसा संकल्प कर राक्षस हमारी मद् बुद्धि का अतिक्रमण करना चाहता है। - अनुवाद का अर्थ इस प्रकार है-. चाणक्य ने नगर में पाकर जिस प्रकार सर्प सा काय किया. अर्थात् राजा नंद को मारकर चंद्रगुप्त को राज्य दिया, उसी प्रकार