१३२ भुताराक्षस. नाटक इसका मूल श्लोक भर्तृहरि के नीतिशतक में मिलता है । इसमें उपमालंकार है और अप्रस्तुत-प्रशसा की ध्वनि भी निकलती है। कई श्रेणी होने के कारण व्यतिरेकालंकार भी कहा जा सकता है। ३८७.३०-क्या शेष मस्तक पर पृथ्वी का बोझ रखने के कारण व्यथिव नहीं होते ? पर वे उसे गिरा नहीं देते। सूर्य दिन । रात भ्रमण करते हुए क्या नहीं थकते १ पर वे कभी नहीं रुकते। इसी प्रकार सज्जन यदि किसी को अपनी शरण में लेते हैं तो उसकी भलाई करते हैं । यही भले भादमियों का नियम है। पहले दोहे में प्रतिवस्तूपमा है । दूसरे दोहे में मूल की कृपणवत् उपमा नहीं आ सकी। ११-मूल में राक्ष का कथन यों है-मित्र ! तुम यह दिखला रहे हो कि प्रस्तुत कार्य त्यागने योग्य नहीं है । हाँ, फिर ।' मूल में प्रारब्धम्' शब्द है जिसका अर्थ वहाँ 'प्रस्तुम् कार्यम्' से पः अनुवाद में 'भाग्य लिया गया है। .. ३१५-मूज में नंद के मत्रियों के स्थान पर दो पाठ हैं-कुसुम सिनो नंदामात्यपुरुष.न और कुसुमपुरवासिनो युष्मदीयानाप्त | ३२६.३२७-चाणक्य अपनी नीति की एक चाल से अनेक करता है जैसे केवल क्षपणक को देश निर्वासन का दड लगा पवतेश्वर को आधा राज्य न देने के लिए मार डालने का अपना पयश हमारे माथे मढ़ दिया अर्थात् अर्द्धगज्य की प्राप्ति, अपने र | का प्रक्षालन और उसे राक्षम्र के माथे आरोपिन करना, एकही चाल से पूरा किया। में काव्यलिंग अलंकार है। साहित्यदर्पण में इसका लक्षण या है 'हेतोर्वाक्यपदार्थ त्वे काव्यजिंगमुदाहृतम्' । विषम भी है। 15-३३६ केवल यही शोक है कि प्राण के लोभ से अपने का परलोक तक अनुसरण नहीं किया और कृतघ्न होकर
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